महाभारत के १८ पर्वों में से एक है “महाप्रस्थानिक पर्व” जिसमे पांडवो की महान स्वर्ग यात्रा अर्थात मोक्ष की यात्रा का वर्णन है. इसके अनुसार सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा करने के बाद पांडव मोक्ष के उद्देश्य से हिमालय की गोद में चले गए, वहां “मेरु” पर्वत के पास उन्हें स्वर्ग का रास्ता मिला लेकिन इस रास्ते में यात्रा के दौरान सबसे पहले द्रौपदी की मृत्यु हुई. इसके बाद एक एक कर पांडव मृत्यु को प्राप्त होते गए, सिर्फ युधिष्ठिर ही एक ऐसे प्राणी थे जिन्हे सशरीर स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति मिली. आखिर क्या कारन था सबसे पहले द्रौपदी की मृत्यु का और धर्मराज के सशरीर स्वर्ग में पहुँचने का ? आइये जानते हैं:
बात उस समय की है जब यदुवंशियों का वंश समाप्त हो गया था और ये बात जानकर युधिष्ठिर को बहुत दुःख हुआ.महर्षि वेदव्यास की आज्ञा से पांडवों ने द्रौपदी समेत राज-पाठ त्याग परलोक जाने का निश्चय किया. युधिष्ठिर ने युयुत्सु को सम्पूर्ण राज्य का दायित्व सौंप कर परीक्षित का राज्याभिषेक किया और यात्रा के लिए निकल पड़े. रास्ते में पांडवों के साथ एक कुत्ता भी चलने लगा.अनेक तीर्थो, नदियों पर्वतों को पार कर पांडव लालसागर तक आ गए परन्तु वहां पर अर्जुन लोभवश अपने गांडीव और अक्षय-तरकश का त्याग नहीं कर पाए, अग्नि देव के आग्रह करने पर अर्जुन ने अपने शस्त्र का त्याग किया. उसके बाद सभी ने उत्तर दिशा की ओर से यात्रा प्रारम्भ की और “मेरु” पर्वत के दर्शन किये, दर्शन के पश्चात पर्वत के ही पास उन्हें स्वर्ग का रास्ता मिला. रास्ते में सबसे पहले द्रौपदी मृत्यु को प्राप्त हुई, द्रौपदी की मृत्यु पर भीम ये युधिष्ठिर ने पूछा की द्रौपदी ने तो अपने जीवन में कभी कोई पाप नहीं किया फिर क्यों द्रौपदी की मृत्यु हुई युधिष्ठिर ने बताया की द्रौपदी उन सब में से सबसे ज़्यादा स्नेह अर्जुन से करती थी, और बिना द्रौपदी को देखे ही युधिष्ठिरआगे चल पड़े. उसके पश्चात् सहदेव की मृत्यु पर युधिष्ठिर ने बताया की सहदेव को अपने विद्वान् होने का अभिमान था, नकुल की मृत्यु का कारन उनके अपने रूप पर अभिमान और अर्जुन की मृत्यु का कारन उनका अपने पराक्रम पर अभिमान बताया, यीधिष्ठिर ने बताया की अर्जुन कहा करते थे की वो किसी भी युद्ध को एक दिन में समाप्त कर सकते हैं परन्तु ऐसा नहीं हुआ.भीम की मृत्यु का कारन युधिष्ठिर ने भीम के द्वारा भोजन का अतिसेवन और अपने ही द्वारा अपनी ही प्रशंशा करना बताया.
कुछ देर मार्ग में आगे बढ़ने पर देवराज इंद्रा युधिष्ठिर को लेने अपने रथ में आए, युधिष्ठिर ने मार्ग में पड़े अपने भाइयों और द्रौपदी को भी साथ ले जाने की बात कहीं तो इंद्रा ने बताया की वे सभी मृत्यु के बाद स्वर्ग पहुँच चुके हैं परन्तु आपको सशरीर स्वर्ग जाने का अवसर प्रदान हुआ है. स्वर्ग पहुँचने पर युधिष्ठिर को दुर्योधन दिखाई था परन्तु अपने भाई नहीं, तो उन्होंने इंद्रा से अपने भाइयों के पास जाने की बात कही.
इंद्रा ने एक देवदूत को बुलाकर उन्हें युधिष्ठिर को बाकी पांडवों के पास ले जाने को कहा, युधिष्ठिर देवदूत के साथ चल पड़े, जिस मार्ग पर युधिष्ठिर को ले जाया गया वो बहुत ही दुर्गन्ध भरा रास्ता था, जगह जगह पर शव बिखरे पड़े थे, मार्ग में आगे जाने से पहले युधिष्ठिर ने देवदूत से पूछा, “अभी कितना और चलना होगा “तो देवदूत ने कहा ” देवराज की इंद्रा की आज्ञा है की जब आप थक जाए तो आपको वापिस ले आया जाए, अगर आप आगे नहीं जाना चाहते तो हम वापिस चल सकते हैं”. यह सुन युधिष्ठिर ने वापिस जाने का निश्चय किया परन्तु वापिस जाते समय युधिष्ठिर को कुछ लोगो की दुखी और रोने की आवाज सुनाई दी, पूछने पर उन्होंने अपना नाम कर्ण, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी बताया. युधिष्ठिर ने देवदूत को कहा की वो स्वर्ग लौट जाएँ, अगर उनके यहाँ रहने से उनके भाइयों को ख़ुशी मिलती हैं तो वो यहीं रहेंगे. युधिष्ठिर के इतना कहते ही सभी देवता वहां पर उपस्थित हुए और युधिष्ठिर को अपने साथ चलने को कहा, युधिष्ठिर के पूछने पर देवताओं ने उन्हें बताया की क्यूंकि उन्होने युद्ध में छल से गुरु द्रोणाचार्य का वध किया था इसीलिए उन्हें भी छल से नरक के दर्शन कराए गए और अब वे उनके साथ स्वर्ग चल सकते हैं जहाँ सभी पांडव उनकी प्रतीक्षा हर रहे हैं और इस प्रकार अपने उस युद्ध में किये गए छल की वजह से युधिष्ठिर को नरक के दर्शन करने पड़े थे.