हिन्दू धर्म ग्रंथ परम प्रतापी शूरवीरों और महान हस्तियों से सुसज्जित है। कुछ ऋषियों ने अपने तप एवं ज्ञान से चिरंजीवी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया तो किसी ने अपने पराक्रम से तो किसी को इस धरती पर लम्बे समय तक शापित जीवन बिताना पड़ा। महाभारत में ऐसे अनेकों ऋषि मुनियों का वर्णन हमें देखने को मिलता है जो द्वापरयुग से भी कई वर्ष पहले से इस धरती पर शोभायमान हैं। महाभारत के युद्ध के पश्चात 18 शूरवीरों के जीवित होने का वर्णन मिलता है, जिनमें से 3 कौरव सेना से गुरु कृपाचार्य, अश्वत्थामा एवं कृतवर्मा थे और पांडवों की सेना से युयुत्सु, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, युधिष्ठिर, श्री कृष्णा, सात्यकि आदि थे। आइये जानते हैं कुछ ऐसे ही नौ लोगों के बारे में जिनके बारे में ऐसा माना जाता है कि वे आज भी जीवित हैं:
महाभारत काल की बात की जाये तो सबसे पहला नाम वेदव्यास जी का आता है। महर्षि वेदव्याद जी महाभारत के रचियता हैं, महाभारत वेदव्यास जी ने सर्वप्रथम श्री गणेश जी को सुनाई थी और गणेश जी ने अपनी कलम से महाभारत लिखी थी। महर्षि वेदव्यास जी का नाम “कृष्णा द्वैपायन” था। महर्षि वेदव्यास मुनि पराशर एवं माता सत्यवती के पुत्र थे। वेदव्यास जी के जन्मदिवस को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। वेदव्यास जी के ३ पुत्र थे: धृतराष्ट्र, विदुर एवं पाण्डु। वेदव्यास जी पितामह भीष्म के सौतेले भाई थे। माना जाता है वेदों का भाग करने के कारण इनका नाम वेदव्यास पड़ा था। महाभारत के कुछ समय तक तो महर्षि वेदव्यास ने सामान्य जीवन व्यतीत किया परन्तु उसक बाद वे हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए। कहा जाता है की महर्षि वेदव्यास को कल्पांत तक जीवित रहने का वरदान प्राप्त है और वे कल्कि अवतार में श्री नारायण की सहायता करेंगे।
ऋषि दुर्वासा को उनके क्रोधी स्वभाव के लिए जाना जाता है। दुर्वासा ऋषि त्रेतायुग में राजा दशरथ के भविष्य वक्ता थे, उन्होंने राजा दशरथ के लिए बहुत सी भविष्यवाणियां भी की थी| द्वापरयुग में महर्षि दुर्वासा द्वारा माता कुंती को मंत्र प्रदान किया गया था और द्रौपदी की परीक्षा लेने हेतु वो अपने दस हज़ार साथियों के साथ वन में गए थे। इनके लिए भी ऐसा माना जाता है कि ये भी कल्पांत तक जीवित रहेंगे एवं श्री नारायण की सहायता करेंगे।
परशुराम महर्षि जमदग्नि एवं माता रेणुका के पुत्र थे। त्रेतायुग में परशुराम जी का वर्णन सीता स्वयंवर में है और द्वापरयुग में वे पितामह भीष्म एवं दानवीर कर्ण के गुरु थे। परशुराम जी के लिए माना जाता है कि उन्होंने अपने तप से भगवान् शिव को प्रसन्न किया था, और कल्पांत तक जीवित रहने का वरदान प्राप्त किया था। श्री नारायण के कल्कि अवतार में वे सहायता के लिए इस धरती पर विराजमान हैं।
जामवंत का सर्वप्रथम उल्लेख रामायण में राजा सुग्रीव के शासन में मिलता है। वे राजा सुग्रीव के मंत्री थे। उन्होंने माता सीता की खोज में अहम भूमिका निभाई थी। द्वापरयुग में जामवंत श्री कृष्णा के ससुर थे, जाणवंत की पुत्री जामवती का विवाह श्री कृष्णा के साथ हुआ था। श्री कृष्णा को एक बार स्यमन्तक मणि के लिए जामवंत से युद्ध करना पड़ा था, युद्ध में हार को निकट देख उन्होंने श्री राम को पुकारा तो श्री कृष्णा को उन्हें अपने राम रूप के दर्शन देने पड़े थे। अपनी गलती जानने के बाद जामवंत ने वो मणि श्री कृष्ण जी को सौंप दिया था। जामवंत का जीवन काल भी कल्पांत तक माना गया है।
ऋषि मार्कण्डेय का वर्णन द्वापरयुग एवं त्रेतायुग दोनों में मिलता है। मार्कण्डेय ऋषि के श्राप के कारण ही यमराज ने द्वापरयुग में शूद्र योनि में महात्मा विदुर के रूप में जन्म लिया था। युधिष्ठिर के वनवास के समय ऋषि उन्हें रामायण सुनाकर धैर्य से काम लेने की सीख देते थे। मार्कण्डेय ऋषि को भी श्री नारायण के कल्कि अवतार तक जीवित रहने का वरदान प्राप्त है।
त्रेतायुग में रावण की लंका को दहन करने का संपूर्ण श्रेय हनुमान जी को ही जाता है। हनुमान ने द्वापरयुग में भीम का घमंड भी खत्म किया था। भगवान् श्री कृष्णा एवं अर्जुन की रक्षा का दायित्व हनुमान जी ने अपने ऊपर लिया था इसलिए वे हमेशा अर्जुन के ध्वज के ऊपर विररजमान रहते थे। माना जाता है हनुमान जी को भी कल्कि अवतार में श्री नारायण की सहायता के लिए इस धरती में रहने का वरदान प्राप्त है।
कुल गुरु कृपाचार्य कौरवों के गुरु एवं महर्षि गौतम के पुत्र थे। महाभारत के युद्ध में वे सकुशल जीवित बच पाए थे| कृपाचार्य की बहन कृपी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य से हुआ था, इस प्रकार वे अश्वत्थामा के मामा भी थे। कृपाचार्य को भी कल्पांत तक चिरंजीवी का आशीर्वाद प्राप्त है।
मायासुर ज्योतिष शिल्प के प्रकांड विद्वान् थे, कहा जाता है की त्रेतायुग में महाराजा दशरथ के भवन निर्माण का कार्य उन्होंने ही किया था साथ ही द्वापरयुग में उन्होंने युधिष्ठिर के राज भवन का निर्माण किया था, जिसे देखकर दुर्योधन की ईर्ष्या और ज़्यादा बढ़ गयी थी। श्री कृष्णा की द्वारकानगरी का निर्माण भी मायासुर की देख रेख में ही किया गया था। मायासुर को भी कलियुग के अंत तक जीवित रहने का वरदान प्राप्त है।
अश्वत्थामा को रूद्र का अवतार माना गया है, इनके पिता का नाम गुरु द्रोणाचार्य था| श्री कृष्णा द्वारा अश्वत्थामा को श्राप दिया गया था कि वे तीन हज़ार साल तक इस धरती में भटकते रहेंगे और किसी भी मनुष्य के सम्पर्क में नहीं आ पाएंगे। ऐसा माना जाता है उसके बाद का जीवन स्वयं अश्वत्थामा ने इस धरती पर बिताने का निश्चय किया क्यूंकि वे कल्कि अवतार के समय श्री नारायण के विरुद्ध युद्ध करना चाहते हैं।
इनमे से किसी के भी जीवित होने का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं है| धर्म ग्रंथों एवं लोक कथाओं के अनुसार ही इनके जीवित होने की बात मानी जाती है। ग्रंथों के अनुसार कई वर्षों तक इन सभी के जीवित होने का वर्णन मिलता है। अश्वत्थामा को छोड़ सभी ऋषि-मुनियों का वर्णन सतयुग, त्रेतायुग एवं द्वापरयुग में मिलता है, इसलिए ऐसा माना जाता है की कलियुग के अंत तक भी ये सभी इस धरती पर विराजमान रहेंगे, जिससे की कलियुग के अंत के समय के श्री नारायण की सहायता कर सकें। एकमात्र अश्वत्थामा ही हैं जिन्हें इस धरती पर सालों साल भटकने का श्राप प्राप्त है।
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