“कर्ण”, महाभारत के एक ऐसे योद्धा जिनके लिए किसी भी प्रकार की विचारधारा बना लेना असंभव है। इतिहास के पन्नो को यदि पढ़ा जाये तो कर्ण अपने आप में एक पूरी कहानी हैं। इतिहास को जानने पर ऐसा मालूम पड़ता है मानो द्वापरयुग में कर्ण का जन्म कुछ महान कार्यों को करने के लिए एवं भविष्य को कुछ अद्भुत उदहारण देने के लिए हुआ था परन्तु उस कार्य को करने के लिए उन्हें सही साथी का चुनाव करने की आज्ञा समय ने नहीं प्रदान की.आइये जानते हैं कर्ण के जीवन से जुड़े दिलचस्प पहलू:
1. ये तो हम सभी जानते हैं की कर्ण, माता कुंती के प्रथम पुत्र थे। सूर्य भगवान द्वारा दिए मंत्र से कर्ण का जन्म हुआ था इसलिए उन्हें “सूर्यपुत्र” के नाम से भी जाना जाता है। कर्ण का जन्म, कुंती के राजा पाण्डु से विवाह से पहले हुआ था इसलिए कुंती ने कर्ण का त्याग कर दिया था। इस प्रकार कर्ण सभी पांडव पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे।
2. कर्ण को कुंती ने एक टोकरी में बंद कर नदी में बहाया था, और कर्ण जिन्हे नदी में बहते हुए प्राप्त हुए वो थे “अधिरथ”। अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने कर्ण को माता पिता का संपूर्ण प्रेण और स्नेह प्रदान किया। उन्होंने कर्ण को अपने ही पुत्र की भांति प्यार दिया और उसका पालन पोषण किया।
3. अधिरथ और माता राधा ने कर्ण का नाम “वसुसेन” रखा, उन्हें “राधे” के नाम से भी जाना जाता है।
4. माना जाता है त्रेतायुग में एक राक्षस हुआ करता था, जिसने भगवान सूर्य की कड़ी तपस्या कर उनसे अमरत्व का वरदान माँगा था, परन्तु भगवान सूर्य ने वो वरदान देने से इंकार कर दिया था। जिसके पश्चात उस राक्षस ने सूर्य देव से एक सह्रस्त्रा कवच माँगा और साथ ही वरदान माँगा की उसके एक कवच को सिर्फ वो ही व्यक्ति तोड़ पाए जो 1000 साल तक कठोर तपस्या करे और कवच को तोड़ते ही उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाए। सूर्य देव जानते थे की उनके इस वरदान का गलत प्रयोग किया जायेगा परन्तु वे वरदान देने के लिए विवश थे। इस वरदान की प्राप्ति के कारण उसका नाम ‘सहस्त्रकवच” पड़ा। अपनी शक्ति के अनुसार वरदान पाते ही उसने सभी को परेशाान करना शुरू कर दिया।
सहस्त्रकवच के इस व्यवहार से हर जगह त्राहि त्राहि मच गयी। इस परेशानी से निजात पाने के लिए सभी देवता श्री हरी विष्णु के पास गए। भगवान् विष्णु ने सभी को आश्वासन दिया की उनकी इस समस्या का कोई न कोई उपाय ज़रूर प्रदान किया जाएगा, और सभी को उस समय लौट जाने को कहा। उसी समय राजा दक्ष ने अपनी पुत्री मूर्ती का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र “धर्म” से कर दिया। मूर्ती के गर्भ से ही भगवान् विष्णु ने 2 जुड़वां बच्चों के रूप में जनम लिया जिनका नाम “नर” एवं “नारायण” पडा। नर और नारायण २ शरीर थे परन्तु उनकी आत्मा एक ही थी। धीरे धीरे दोनों भाई बड़े हुए जिनमे से एक तपस्या के लिए वन में गए और एक ने राक्षस को युद्ध के लिए ललकारा। क्यूंकि दोनों भाई एक ही थे इसलिए १ की तपस्या का फल दूसरे को भी प्राप्त होता था, इस प्रकार दोनों भाइयों ने मिलकर 999 कवच तोड़ डाले।
अंत में अपनी मृत्यु का भय सामने देख सहस्त्रकवच भागते हुए सूर्य देव की शरण में गया। नर और नारायण उसे ढूंढते हुए वहां गए और सूर्य देव से आग्रह किया की उस राक्षस को शरण ना दीजिए। सूर्य अपनी शरण में आये उस राक्षस को शरणवीहीन नहीं करना चाहते थे, और उसे शरण देने की वजह से नारायण ने सूर्य देव को श्राप दे दिया “हे सूर्य देव, जिस दुष्ट राक्षस को आप अभी दंड से बचा रहे हैं, उसे बचाने के कारण आपको भी दंड भोगना होगा, आपको भी इसी राक्षस के साथ जन्म लेना होगा”। त्रेतायुग समाप्त होने पर द्वापरयुग में जब कुंती के आह्वाहन पर सूर्यदेव को अपना अंश भेजना पड़ा तो उस श्राप के कारण सहस्त्रकवच का अंश भी कर्ण में समा गया| यह ठीक उसी प्रकार था जैसे नर और नारायण। कर्ण के पास का कवच सहस्रकवच का हज़ारवां कवच था। इसी युग में नर और नारायण ने “श्री कृष्णा” एवं “अर्जुन” के रूप में जन्म लिया था। अगर अर्जुन ने कर्ण का कवच तोडा तो अर्जुन की मृत्यु हो जाएगी ये बात देवराज इंद्रा जानते थे इसलिए उन्होंने पहले ही कर्ण से उसका कवच मांग लिया था।
इस प्रकार अपने पूर्व जन्म के श्राप के कारण कर्ण को इस जन्म ने आलोचनाओं को सहना पड़ा और इसी कारण सूर्य पुत्र होने के बाद भी उन्हें दुर्योधन जैसे दुराचारी का साथ मिला।
5. कर्ण बहुत ही पराक्रमी और महान योद्धा थे, उन्होंने अपनी शिक्षा “दुर्वासा” ऋषि से प्राप्त की थी।
6. यूं तो महाभारत में कर्ण की मृत्यु अर्जुन के हाथों हुई परन्तु यह भी कर्ण की दानवीरता के कारण ही संभव हुआ. कर्ण को द्वापरयुग में किस भी नाम से जाना होगा परन्तु द्वापरयुग के बाद जन्म लेने वाला हर प्राणी उन्हें “दानवीर कर्ण” के नाम से जनता है।
7. दानवीर होने के साथ साथ कर्ण बड़ी ही कर्मठता के साथ अपने वचन का पालन करने वाले भी थे, यही कारण था की युद्ध से ठीक पहले अपनी माता का सत्य जानने के बाद भी उन्होंने दुर्योधन का साथ नही छोड़ा।
कर्ण की इन्ही विशेषताओं ने उन्हें इतिहास के पन्नो में अमरत्व प्रदान कर दिया।
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