द्वापरयुग में श्री नारायण ने श्री कृष्णा अवतार लिया था दुराचारी कंस के संहार के लिए। कंस के दुराचार इतने ज़्यादा बढ़ गए थे कि श्री नारायण को धरती पर अवतरित होना ही पड़ा। परन्तु सिर्फ यही उनके अवतरित होने का कारण नहीं था, कारण था विश्व को कर्म की प्रधानता की सीख देना। द्वापरयुग एवं श्री नारायण के कृष्णा अवतार को कंस की मृत्यु से कहीं ज़्यादा महाभारत के युद्ध के लिए जाना जाता है। “श्रीमद भागवत गीता” की जन्मभूमि है कुरुक्षेत्र का वो मैदान जहां महाभारत का युद्ध हुआ था। हम ऐसे बहुत से वीर योद्धाओं की गाथाएं सुन चुके हैं, जिन्होंने महाभारत के युद्ध में प्रतिभाग किया था। आज जानते ऐसे योद्धा के बारे में जो बहुत ही पराक्रमी, शूरवीर था, लेकिन उसने महाभारत के युद्ध में प्रतिभाग नहीं किया। ये बात तो हम सभी जानते हैं की महाभारत युद्ध के प्रारम्भ से पहले पांडव और कौरव दोनों ही श्री बलराम के पास अपने अपने पक्ष की बात रखने गए थे, परन्तु बलराम ने युद्ध से दूर रहना ही उचित समझा क्यूंकि वे पांडवों एवं कौरवों को समान समझते थे। बलराम के अलावा भी एक योद्धा थे जिनका नाम शायद ही हमने सुना होगा, वो हैं : “रुक्मी”।
रुक्मी श्री कृष्ण के साले एवं रुक्मणि के भाई थे। वे इस युद्ध में प्रतिभाग करना चाहते थे परन्तु ऐसे कुछ विशेष कारण थे जिनकी वजह से वे इस युद्ध में हिस्सा नहीं ले सके। आइये जानते रुक्मी की कहानी:
रुक्मी एक दिव्य धनुष को धारण करने वाला शूरवीर था, एक दिन अहंकार से आसक्त होकर रुक्मी पांडवों के पास जाकर उनकी सहायता करने को कहता है। अर्जुन रुक्मी के अहंकार को देख उसे मना कर देते हैं, और इसके बाद रुक्मी दुर्योधन के पास जाता है। इस बात का उल्लेख महाभारत के सैन्य पर्व में कुछ निम्न प्रकार से मिलता है।
रुक्मी के पास विजय नामक एक तेजस्वी धनुष था, जो भगवन इंद्रा द्वारा उसके गुरु और उसके गुरु द्वारा उसे प्रदान किया गया था। यह धनुष सारंगी धनुष के सामान तेजस्वी एवं दिव्य था। इतिहास काल में तीन प्रमुख धनुषों को ही तेजस्विता की मान्यता प्रदान थी जिसमें से एक गांडीव धनुष “देव वरुण” का , विजय धनुष “देवराज इंद्रा” का और सारंगी नमक दिव्य तेजस्वी धनुष “भगवान् विष्णु” का बताया गया है। सारंगी नामक यह दिव्या धनुष श्री कृष्णा ने धारण किया था। खांडव वन के समय अग्नि देव को प्रस्सन कर अर्जुन ने गांडीव प्राप्त किया था और रुक्मी ने अपने गुरु से विजय धनुष की प्राप्ति की थी। श्री कृष्णा ने भूमिपुत्र नरकासुर को जीतकर जब अदिती के कुण्डल एवं रत्नों को अपने अधिकार में कर लिया तभी उन्हें वहाँ से सारंग नमक उत्तम एवं अद्भुत धनुष की प्राप्ति हुई।
रुक्मी विजय धनुष की भयावह टंकार के साथ सारे जगत को भयभीत करता हुआ पांडवों के पास आया। यह वही रुक्मी था जिसने अपने घमंड में आकर श्री कृष्णा द्वारा रुक्मणि के अपहरण को और फिर विवाह को स्वीकार नहीं किया था और प्रतिज्ञा की थी बिना श्री कृष्णा को मारे मैं अपने नगर को नहीं लौटूंगा। जब रुक्मी ने ये प्रतिज्ञा की थी तब उसके पास चौरंग, समस्त सुविधाओं से सुसज्जित एवं दूर तक के लक्ष्य को भेदने वाली चतुरंगी सेना थी। श्री कृष्णा के साथ युद्ध में हारने के बाद लज्जित होकर भी वो अपने नगर कुण्डिनपुर नहीं लौटा था। जहा श्री कृष्णा ने वीरों का हनन करने वाले रुक्मी को हराया था वहीँ पर रुक्मी ने भोजकट नामक एक उत्तम नगर बसाया था। भोजकट नाम का यह नगर पूरे विश्व में अपनी प्रतिभा,सौंदर्य, अनोखी एवं विशाल सेना के लिए विख्यात था।
अपनी विशाल एवं अनोखी सेना के साथ रुक्मी अर्जुन के पास आया। उसने कवच, तरकस, खड्ग एवं सूर्य के तेज के समान ध्वज के साथ पांडवों की सेना में प्रवेश किया। वह श्री नारायण का प्रिय बनने की इच्छा से आया था। पांडवो को जब उसके आगमन की सूचना मिली तो युधिष्ठिर के साथ सभी पांडव उसके स्वागत के लिए गए, वहाँ उसका अभिनन्दन किया और इससे खुश होकर रुक्मी ने अपनी पूरी सेना के साथ वहीँ विश्राम किया। कुछ समय पश्चात रुक्मी ने अर्जुन से कहा ” हे कुंती नंदन ! अगर आप युद्ध से डरे हुए हैं तो अब आपको डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं अकेले ही युद्ध में कौरव सेना का विनाश करने में सशक्त हूँ। आप चाहें तो युद्ध में कोई सा भी क्षेत्र मुझे दे सकते हैं। फिर चाहे उस क्षेत्र में पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य,कुलगुरु कृपाचार्य और महारथी कर्ण जैसे शूरवीर ही क्यों ना हों मैं अकेले ही उन सबको परास्त कर सकता हूँ।
उसकी यह बात सुन अर्जुन ने बड़ी ही शालीनता से उत्तर दिया” हे वीर! मैंने कौरव कुल में जन्म लिया है, भीष्म में पितामह हैं और द्रोणाचार्य मेरे गुरु। मेरे हाथ में गांडीव नमक धनुष है और मेरे सारथी हैं श्री कृष्णा तो मैं डरा हुआ कैसे हो सकता हूँ। मैंने विराट नगर के युद्ध को अकेले ही जीता है, खांडव वन के युद्ध को अकेले जीता है, मैंने बहुत से राक्षसों का विनाश किया है भला मैं कैसे डरा हुआ हो सकता हूँ। हे वीर और इन सबके साथ साथ अब तो मुझे दिव्यास्त्रों का भी ज्ञान हैं और मेरे पास बहुत से दिव्यास्त्र भी हैं जो मैंने स्वयं देवताओं से प्राप्त किये हैं। हे नरश्रेष्ठ! मुझे सहायता की कोई आवश्यकता नहीं ये आपकी इच्छा है आप चाहें तो यहाँ रुक सकते हैं या फिर अपने सेना को अपनी इच्छा से कहीं अन्यत्र ले जा सकते हैं”।
यह बात सुन रुक्मी अपनी सेना को लेकर दुर्योधन के पास चला गया, दुर्योधन के पास जाकर भी रुक्मी ने वही शब्द कहे जो उसने अर्जुन को कहे थे। दुर्योधन अपने आप को एक शक्तिशाली योद्धा समझता था इसलिए उसने भी इस प्रकार के शब्द रुक्मी के मुख से सुन रुक्मी की सहायता लेने से इंकार कर दिया और रुक्मी को अपनी उस विशाल सेना के साथ वापिस लौटना पड़ा।
इस प्रकार महाभारत के युद्ध से दो शक्तिशाली योद्धा दूर रहे, एक थे रोहिणीनन्दन बलराम जो की स्वेच्छा से इस युद्ध से दूर थे और दूसरे थे रुक्मणि भ्राता रुक्मी जिन्हें उनके घमंड के कारण युद्ध से बाहर कर दिया गया था।
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