Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi & English – संस्कृत को सभी भाषाओं की जननी माना जाता है। NASA के मुताबिक, संस्कृत धरती पर बोली जाने वाली सबसे स्पष्ट भाषा है। संस्कृत में दुनिया की किसी भी भाषा से ज्यादा शब्द हैं, वर्तमान में संस्कृत के शब्दकोष में 102 अरब 78 करोड़ 50 लाख शब्द हैं। ऋषि-मुनियों द्वारा कही गयी कईं धार्मिक बातें और ज्ञान संस्कृत श्लोकों में दिया गया है। NASA के पास संस्कृत में ताड़पत्रो पर लिखी 60,000 पांडुलिपियां है जिन पर नासा रिसर्च कर रहा है।
किसी और भाषा के मुकाबले संस्कृत में सबसे कम शब्दो में वाक्य पूरा हो जाता है। संस्कृत स्पीच थेरेपी में भी मददगार है यह एकाग्रता को बढ़ाती है। ऋषि-मुनियों द्वारा संस्कृत भाषा में कई सारी बातें संस्कृत श्लोकों में लिखी गयी हैं।
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संस्कृत श्लोक हिंदी व अंग्रेजी अर्थ सहित (Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi & English)
बहीव्मपि संहितां भाषमाण: न तत्करोति भवति नर: प्रामत्त: ।
गोप इव गा गणयन् परेषां न भाग्यवान् श्रामण्यस्य भवति ॥
यदि मनुष्य बहुत से धार्मिक श्लोक स्मरण में भी रखे पर उस प्रकार का आचरण न करे तो उस का कोइ लाभ नही है. जैसे गाय चराने वाला गौवों की संख्या तो जानता है पर वह उसका मालिक नही रहता.
If a man, recites even a large portion of sacred text, but being heedless (negligent) does not put in to practice, he has no share in the ascetic life; He is like a cowherd who counts the cows of others (i.e. he is not the owner of the cows).
जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट: स हेतु: सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च ||
जिस तरह बूँद-बूँद पानी से घड़ा भर जाता है, उसी तरह विद्या, धर्म, और धन का संचय होता है. अर्थात छोटे मात्रा मे होने पर भी विद्या, धर्म, और धन पर दुर्लक्ष नही करना चाहिये.
If water is added to a vessel drop by drop, it gets filled slowly. Similarly, knowledge, dharma (punnya, virtuous deeds), and wealth are to be earned slowly. Means, don’t ever miss to gain a small amount of knowledge, dharma or wealth, because any small amount actually adds in your treasure.
अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: ।
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करने से किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नही होता है. जैसे जिस चम्मच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्रााप्त नही होता
Mere reading of the four vedas and all the shastras number of times, is not enough for obtaining the real knowledge of Brahman (Realization of the supreme being), Just as a spoon in a vessel used for serving, does not get the taste of the thing served from that pot. (For realization of highest principle, listening the shastras, meditating on them, and their constant study, observing of the restrictions etc. are necessary.)
ऐक्यं बलं समाजस्य तदभावे स दुर्बल: |
तस्मात ऐक्यं प्रशंसन्ति दॄढं राष्ट्र हितैषिण: ||
एकता समाज का बल है, एकताहीन समाज दुर्बल है. इसलिए, राष्ट्रहित सोचने वाले एकता को बढावा देते हैं.
Unity is the strength of any society and it (society) is weak without unity. Hence well-wishers of the nation strongly praise unity.
गौरवं प्राप्यते दानात् न तु वित्तस्य संचयात् |
स्थिति: उच्चै: पयोदानां पयोधीनां अध: स्थिति: ||
दान से गौरव प्राप्त होता है ,वित्त के संचय से नहीं. जल देने वाले बादलों का स्थान उच्च है, बल्कि जल का समुच्चय करने वाले सागर का स्थान नीचे है.
Fame is obtained by donating (giving) money, not collecting it. Clouds (givers of water) have a high position whereas the seas (reservoirs of water) have a low position.
परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा |
आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्मति ||
हर एक मनुष्य दूसरे के दोष दिखाने में प्रवीण होता है। अपने खुद के दोष या तो उसे नजर नही आते, या फिर वह उस दोषों की अनदेखी करता है.
Every one is always expert in finding out (and talking about) faults/short cummings of another person. He either does not know his own faults or even after knowing he keeps quiet about it.
भेदे गणा: विनश्येयु: भिन्नास्तु सुजया: परै:
तस्मात् संघातयोगेन प्रयतेरन् गणा: ||
सदा गणराज्यमे अगर एकता न हो तो वह नष्ट हो जाता है, क्योकि एकता न होने पर शत्रु को उसे नष्ट करने मे आसानी होती है। इसीलिए गणराज्य हमेशा एक रहना चाहिये.
Whenever unity in unions (societies or country) is broken, they get destroyed, because if they are not united, it is easy for their enemies to conquer them. That’s why unions (societies) should always try to be united.
श्रद्धाभक्तिसमायुक्ता नान्यकार्येषु लालसा: ।
वाग्यता: शुचयश्चैव श्रोतार: पुण्यशालिन: ॥
योग्य श्रोता वही है जिन के पास श्रद्धा तथा भक्ति है, जिनका हेतु केवल ज्ञान प्रााप्त करना है और कुछ भी नहीं, तथा जिनका अपने वाणी पर नियंत्रण है और जो मन से शुद्ध है.
Those listeners only are meritorious, who have faith and devotion and have no further desire except grasping the subject, have control over their speech and are holy (or pure).
सुखं शेते सत्यवक्ता सुखं शेते मितव्ययी ।
हितभुक् मितभुक् चैव तथैव विजितेन्द्रिय: ॥
सत्य बोलने वाला, मर्यादित खर्चा करने वाला, हितकारक पदार्थ जरूरी मात्रा मे खाने वाला, तथा जिसने इन्द्रियों पर विजय पाया है, वह चैन की नींद सोता है.
The one who speaks truth, one who spends less, One who eats nutritional food in limited quantity and the one who has conquered the senses, gets peaceful sleep.
वॄत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमायाति याति च |
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: ||
मनुष्य को अपने शील का संरक्षण प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये (उसके धन का नही). धन कमाया जा सकता है और गंवाया भी जा सकता है। धनवान परन्तु शीलहीन मनुष्य मॄत के समान है.
One shall protect his ‘sheela’ (good character) with efforts (not his wealth), money can be earned and lost (i.e. money is not stable, you have it today tomorrow you may lose it). A wealthy person without a good character is as good as dead.
यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तव: ।
तथा गॄहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमा: ॥
जिस प्रकार इस जगत में सभी का जीवन वायु पर निर्भर है उसी प्रकार मनुष्य जीवन के सभी आश्रम गॄहस्ताश्रम पर निर्भर है.
Just as, (in this world) all the (living) beings exist, depending on (with the help of) air (Vayu), in the same way, all the other stages of life (i.e. Ashramas) exist depending on the stage of a house-holder (i.e. Grhasthashrama).
विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते |
वीरा: संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते ||
जिसे अपने आप पे भरोसा नही है ऐसा बलहीन पुरुष नसीब के भरोसे रहता है. बलशाली और स्वाभिमानी पुरुष नसीब का खयाल नहीं करता.
A powerless timid person believes in fortune (i.e. relies on external forces for his own progress). A powerful person with self esteem does not give any importance to fortune. This subhashita tells us that a person himself is responsible for whatever happens in his life. So he must ‘act’ if he wants to do any progress. He can not blame his fortune.
विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते |
वीरा: संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते ||
बलवान पुरुष का बल जब तक वह नही दिखाता है, उसके बल की उपेक्षा होती है। लकड़ी से कोई नही डरता, मगर वही लकड़ी जब जलने लगती है, तब लोग उससे डरते हैं.
A powerless timid person believes in fortune (i.e. relies on external forces for his own progress). A powerful person with self esteem does not give any importance to fortune. This subhashita tells us that a person himself is responsible for whatever happens in his life. So he must ‘act’ if he wants to do any progress. He can not blame his fortune.
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।
यत्रैतास्तु न शोचन्ति ह्मप्रासीदन्ति वर्धते तद्धि सर्वदा॥
जिस परिवार में स्त्री (ह्ममाता, पत्नी, बहन, पुत्री) दु:खी रहती है उस परिवार का नाश होता है तथा जिस परिवार में वो सुखी रहती है वह परिवार समॄद्ध रहता है.
The family in which women folks (such as mother, wife, sister, daughter etc.) are full of sorrow that family meets its destruction very soon; while the family in which they have not to grieve is always prosperous.
आचाराल्लभते ह्मयु: आचारादीप्सिता: प्राजा: ।
आचाराद्धनमक्षय्यम् आचारो हन्त्यलक्षणम् ॥
अच्छे व्यवहार से दीर्घ आयु, श्रेष्ठ सन्तती, चिर समॄद्धी प्रााप्त होती है तथा अपने दोषों का भी नाश होता है,
Good conduct gives long life, desired well-behaved progeny and ever-lasting wealth (i.e. prosperity). so also by good conduct other defects are destroyed. (i.e.They become ineffective.)
रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम् ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥॥
राजशिरोमणि,सदा विजयी होनेवाले रमापति राम की मै प्रार्थना करता हूँ. राक्षसों का नि:पात करनेवाले राम को नमस्कार । राम के अलावा कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण नही , मै राम का दास हूँ । मेरा चित्त राम में लीन है , हे राम , मेरा उद्धार करो ॥ (बुध कौशिक ऋषी विरचित रामरक्षास्तोत्र मे यह श्लोक है. इस श्लोक की विशेषता ये है कि , राम शब्द की सभी आठ विभक्तियों का इसमें प्रयोग किया है)
Rama, the jewel among the kings, Him I worship, by Him the hordes demons have been destroyed, to him is said my prayer, beyond Him there is nothing to be worshipped, His servant I am, my mind is totally absorbed in Him, O Ram, please lift me up. (The speciality of this verse from Ramaraksha is, it gives all the eight declensions of the singular word Rama. Hats off to the composer, Budhakaushik Rishi)
क्वचिद्भूमौ शय्या क्वचिदपि पर्यङ्कशयनं
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि: |
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम् ||
कभी धरती पर सोना तो कभी पलंग पे. कभी सब्जी खाना तो कभी रोटी–चावल. कभी फटे हुए कपड़े पहनना कभी बहुत कीमती कपड़े पहनना. जो व्यक्ति अपने कार्य में सर्वथा मग्न हो, उन्हे ऐसी बाहरी सुख-दु:ख से कोई मतलब नही होता.
Sometimes he will sleep on floor, sometimes on bed. Sometimes he will eat vegetables, sometimes rice and bread. Sometimes he will wear worn cloths, sometimes very rich cloths. A person who is dedicated for a certain cause/work is never bothered of (such external) difficulties of facilities. In short, a devoted person is unaffected by all the things which are not related to his cause.
उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां शथा खे पक्षिणां गति: ।
तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् ॥
जिस तरह दो पंखो के आधार से पक्षी आकाश में ऊँचा उड़ सकता है उसी तरह ज्ञान तथा कर्म से मनुष्य परब्रह्म को प्रााप्त कर सकता है.
Just as the bird can fly high with the help of it’s two wings, in the same way with the help of knowledge (‘dnyaana’) and duly performance of one’s own duties (‘karma’) – one can attain the supreme reality.
रविरपि न दहति तादॄग् यादॄक् संदहति वालुकानिकर: |
अन्यस्माल्लब्धपदो नीच: प्रायेण दु:सहो भवति ||
सूर्य प्रकाश से भी ज्यादा तपे हुए रेत का दाह अधिक होता है. (उसी तरह) दूसरों के सहाय्य से बड़ा हुआ नीच मनुष्य ज्यादा उपद्रव देता है.
Direct Sun (light) does not burn us (our skin) as much as a hot sand dune does. (Similarly) A mediocre person who becomes great (or powerful) due to another person (like sand dune getting hot due to Sunlight) is often annoying.
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ।
उहापोहोर्थ विज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा: ॥
श्रवण करने की इच्छा, प्रात्यक्ष में श्रवण करना, ग्रहण करना, स्मरण में रखना, तर्क-वितर्क, सिद्धान्त निश्चय, अर्थज्ञान तथा तत्वज्ञान ये बुद्धी के आठ अंग है.
Willing to listen, to actually listen, to understand what we listen, to be able to remember what we have listened, to be able to deduce some conclusions and put forth arguments, to be able to formalise and conclusively put forth the thought, knowledge of the around and Philosophy – these are the eight facets of ‘buddhi’.
गतेर्भंग: स्वरो हीनो गात्रे स्वेदो महद्भयम् ।
मरणे यानि चिनानि तानि चिनानि याचके ॥
चलते समय संतुलन खोना,बोलते समय आवाज न निकलना, पसीना छूटना और बहुत भयभीत होना यह मरने वाले आदमी के लक्षण याचक के पास भी दिखते है.
Losing balance while walking, talking in low voice (not able to talk properly), sweating, and fear, all this are signs found in a person who is about to die, same signs are found in Yachaka, i.e. a person who is asking help from others (a person who is dependent on others).
मनसा चिन्तितंकर्मं वचसा न प्रकाशयेत् ।
अन्यलक्षितकार्यस्य यत: सिद्धिर्न जायते ॥
मन में की हुई कार्य की योजना दूसरों को न बताये. दूसरें को उसकी जानकारी होने से कार्य सफल नही होता.
If you are thinking of doing some work, don’t tell it (to others). If others get to know it, it won’t succeed. There are some people who talk a lot and don’t do much. Perhaps this Subhashit is meant or such people. Subhashitkar is telling us to ‘do’ rather than ‘tell’ your intentions to other.
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिन: श्रेष्ठा: ग्रन्थिभ्यो धारिणो वरा: ।
धारिभ्यो ज्ञानिन: श्रेष्ठा: ज्ञानिभ्यो व्यसायिन: ॥
निरक्षर लोगों से ग्रंथ पढ़ने वाले श्रेष्ठ है तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ समझने वाले श्रेष्ठ है. ग्रंथ समझने वालों से भी अधिक आत्मज्ञानी श्रेष्ठ तथा उनसे भी अधिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान को उपयोग में लाने वाले श्रेष्ठ कहलाते हैं.
Those who can read books are better than the illiterates. Better than the readers of the book are those who also understand the meaning of the books. Better than those who understand the meaning of the books are the one who know / experience the supreme reality and even better are those who put in practice the knowledge that they have gained from the books.
सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा ।
चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि च सुखानि च ॥
जीवन में आने वाले सुख का आनंद ले, तथा दु:ख का भी स्वीकार करें. सुख और दु:ख तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है.
Take pleasure from the joys (in life) and also accept the sorrows; for joys and sorrows keep changing in a cycle.
दूर्जन: परिहर्तव्यो विद्यया लङ्कॄतोऽपि सन ।
मणिना भूषित: सर्प: किमसौ न भयङ्कर: ॥
दुर्जन चाहे वह विद्या से विभूषित क्यूँ न हो, उसे दूर रखना चाहिए. मणि से आभूषित “साँप” क्या भयानक नहीं होता?
One should avoid crooked person even if he/she is educated. Isn’t snake adorned with gem, dangerous?
नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचं रसातलम्
व्यवसायद्वितीयानां नात्यपारो महोदधि: ||
जो मनुष्य उद्योग का सहाय्य लेता है (अपने स्वयं के प्रयत्नों पे निर्भर होता है), उसको पर्वत की चोटी उंची नही, पॄथ्वी का तल नीचा नही, और महासागर अनुल्लंघ्य नही.
Whatever be the nature of a person, it is always very difficult to change. If a dog is appointed as King, even then he will not stop biting shoes. That is, he will keep on doing all the inferior things which he is otherwise used to.
य: स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रम: |
श्वा यदि क्रियते राजा तत् किं नाश्नात्युपानहम् ||
जिसका जो स्वभाव होता है, वह हमेशा वैसा ही रहता है. कुत्ते को अगर राजा भी बनाया जाए, तो वह अपनी जूते चबाने की आदत नही भूलता.
Whatever be the nature of a person, it is always very difficult to change. If a dog is appointed as King, even then he will not stop biting shoes. That is, he will keep on doing all the inferior things which he is otherwise used to.
मातॄवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् ।
आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पश्यति ॥
जो व्यक्ति धार्मिक प्रवृत्ति का है वो परस्त्री को माते समान परद्रव्य को माटी समान तथा अन्य सभी प्राणीमात्रों को स्वयं के समान मानता है. यही धर्म के सही लक्षण है.
Those who are ‘dharmik’ in nature (Have noble qualities), consider all the women (Except one’s own wife) as mothers – consider other’s wealth as dust (Have no intention to acquire other’s wealth by any means) – and consider all the other living creatures like themselves (Equally love all the living creatures as one would love himself/herself)!
एकत: क्रतव: सर्वे सहस्त्रवरदक्षिणा ।
अन्यतो रोगभीतानां प्रााणिनां प्रााणरक्षणम् ॥
एक ओर विधीपूर्वक सब को अच्छी दक्षिणा दे कर किया गया यज्ञ कर्म तथा दूसरी ओर दु:खी और रोग से पीड़ित मनुष्य की सेवा करना यह दोनों भी कर्म उतने ही पुण्यप्राद है.
On one side is an act of performing ‘Yadnya’ and donating generously for the same and on the other side is an act of giving an helping hand to the poor/needy and curing the diseased ones. Both these acts will earn for you the same ‘Punya’.
नात्यन्त गुणवत् किंचित् न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम् |
उभयं सर्वकार्येषु दॄष्यते साध्वसाधु वा ||
ऐसा कोई भी कार्य नही है जो सर्वथा अच्छा है. ऐसा कोई भी कार्य नही जो सर्वथा बुरा है. अच्छे और बुरे गुण हर एक कार्य में होते ही हैं.
There is no work which is good in all respects. There is no work bad in all respects. Both good and bad points are present in every work.
ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते ।
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥
विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आसक्ति हो जाती है यह आसक्ति ही कामना को जन्म देती है और कामना ही क्रोध को जन्म देती है.
“While contemplating the objects of the senses, a person develops attachment for them, and from such attachment lust develops, and from lust anger arises”. The attachment (and hence the desire to attain) for an object develops in the first place by perceiving it through the senses. When such desire is not fulfilled, then there comes anger in the heart (due to frustration of the desire) Therefore the best policy is to not even think about the sense objects and thus live simply and happily. For, the more one thinks, the more one desires; the more one desires, the more one gets frustrated, and the more one gets frustrated, the more one gets angry.
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते |
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: ||
जो कार्य करने योग्य नही है इच्छा न होने के कारण वह प्राण देकर भी नही करना चाहिए. तथा जो काम करना है अपना कर्तव्य होने के कारण वह काम प्राण भी देने पड़े तो भी करना नही छोड़ना चाहिए.
The work which is not to be done (because it is bad) should not be done even if you have to loose your life. And the work which has to be done (because it is your duty) – should be continued to be done even if it costs your own life! This is the sanatana Dharma.
यद्यत् परवशं कर्मं तत् तद् यत्नेन वर्जयेत्
यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत् तत् सेवेत यत्नत: ||
जिस काम में दूसरों का सहाय्य लेना पड़े, ऐसे काम को टालो। (परन्तु) जिसमे दूसरों का सहाय्य न लेना पड़े, ऐसे काम शीघ्रता से पूरे करो।
Try to avoid any work for which you have to depend on others. Try to finish the work fast for which you can do independently
देहीति वचनद्वारा देहस्था पञ्च देवता: |
तत्क्षणादेव लीयन्ते र्धीह्र्रीश्र्रीकान्र्तिकीर्तय: ||
‘दे’ इस शब्द के साथ, याचना करने से देह में स्थित पांच देवता बुद्धी, लज्जा, लक्ष्मी, कान्ति, और कीर्ति उसी क्षण देह छोडकर जाती है.
The words ‘give me’ (begging), cause five virtues (good qualities) go away from you, immediately: intelligence, elegance, prosperity, glow and fame
दीर्घा वै जाग्रतो रात्रि: दीर्घं श्रान्तस्य योजनम् ।
दीर्घो बालानां संसार: सद्धर्मम् अविजानताम् ॥
रातभर जागनेवाले को रात बहुत लंबी मालूम होती है. जो चलकर थका है, उसे एक योजन ह्म चार मील अंतर भी दूर लगता है. सद्धर्म का जिन्हे ज्ञान नही है उन्हे जिन्दगी दीर्घ लगती है.
Night sounds very long to the one who is awake all through the night. Little distance appears to be stretched to the one who is already tired of walking. (Similarly) Life sounds long to the people who do not know sat-dharma.
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् ॥
मूर्ख मनुष्य के लिए प्रति दिन हर्ष के सौ कारण होते है तथा दु:ख के लिए सहस्र कारण| परन्तु पंडितों के मन का संतुलन ऐसे छोटे कारणों से नही बिगड़ता.
For an un-intelligent (‘Stupid’) person, there are hundreds of incidents/ reasons occurring daily to become happy for and thousands of others to become unhappy at. But intelligent person’s (‘pandit’) mind will not get disturbed by such minor things.
न प्राष्यति सम्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥
संत तो वही है जो मान देने पर हर्षित नही होता अपमान होने पर क्रोधित नहीं होता तथा स्वयं क्रोधित होने पर कठोर शब्द नही बोलता.
He is declared as the best saint, who is not overjoyed when honoured, and does not get angry when insulted and also does not speak harsh words when angry.
गुणेषु क्रियतां यत्न: किमाटोपै: प्रयोजनम् |
विक्रीयन्ते न घण्टाभि: गाव: क्षीरविवर्जिता: ||
स्वयं मे अच्छे गुणों की वृद्धि करनी चहिए| दिखावा करके लाभ नही होता. दूध न देने वाली गाय उसके गले मे लटकी हुअी घंटी बजाने से बेची नही जा सकती.
One should try to develop (relevant) qualities/skills in him rather than making noise (showing off irrelevant qualities). A cow cannot be sold by ringing a bell in her neck if she cannot be milked (making sweet sound of bell is irrelevant quality where as giving milk is a relevant quality of a cow). Today’s world of advertisement tells us exactly opposite of this. It tells us to attract others by attractive packaging rather than contents. But by attractive packaging, one can only raise expectations, but can not satisfy them.
सर्वनाशे समुत्पन्ने ह्यर्धं त्यजति पण्डित: |
अर्धेन कुरुते कार्यं सर्वनाशो हि दु:सह: ||
जब सर्वनाश निकट आता है, तब बुद्धिमान मनुष्य अपने पास जो कुछ है उसका आधा गवाने की तैयारी रखता है| आधे से भी काम चलाया जा सकता है, परंतु सब कुछ गवाना बहुत दु:खदायक होता है.
In the situations where every thing is about to get destroyed, a wise person gives up half (or a part) of what he has. One can live with half of what he wants, but it is extremely difficult to withstand loss of everything,
को न याति वशं लोके मुखे पिण्डेन पूरित: मॄदंगो मुखलेपेन करोति मधुरध्वनिम् ||
मुख खाद्य से भरकर किसको अंकित नहीं किया जा सकता. आटा लगाने से मॄदुंग भी मधुर ध्वनि निकालता है.
Who on earth can not be controlled if his mouth is properly filled (his wants are satisfied by you). Even a mrudungam (a musical instrument) makes sweet sound if flour is applied to it (flour is applied to mrudungam to make its sound clearer).
अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं देहप्रातिष्ठितम् ।
मोहादापद्यते मॄत्यु: सत्येनापद्यतेऽमॄतम् ॥
मॄत्यु तथा अमरत्व दोनों एक ही देह में निवास करती है. मोह के पिछे भागनेसे मॄत्यु आती है तथा सत्य के पिछे चलनेसे अमरत्व प्रााप्त होता है.
Immortality and Death both these reside in the body only. Death comes because of temptation; and immortality by the truth
सर्वार्थसंभवो देहो जनित: पोषितो यत: ।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा ॥
एक सौ वर्ष की आयु प्राप्त हुआ मनुष्य देह भी अपने माता पिता के ऋणों से मुक्त नही होता. जो देह चार पुरूषार्थों की प्राप्ति का प्रमुख साधन है उसका निर्माण तथा पोषण जिन के कारण हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना असंभव है.
A mortal (a man) with the life of one hundred years even, cannot be free from the debts of his parents, from whom the body, which is the root of the four principal objects of human life (Dharma, Artha, Kaama and Moksha), has originated and by whom it has been nourished.
यदा न कुरूते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् ।
समदॄष्टेस्तदा पुंस: सर्वा: सुखमया दिश: ॥
जो मनुष्य किसी भी जीव के प्रति अमंगल भावना नही रखता, जो मनुष्य सभी की ओर सम्यक् दृष्टि से देखता है, ऐसे मनुष्य को सब ओर सुख ही सुख है.
When a man does not harbor any bad (or inauspicious) thought about any creature, to that man of uniform outlook (view) towards all, happiness is there all around (in all directions).
यावत् भ्रियेत जठरं तावत् सत्वं हि देहीनाम् ।
अधिकं योभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥
अपने स्वयं के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक है उतने पर ही अपना अधिकार है. यदि इससे अधिक पर हमने अपना अधिकार जमाया तो यह सामाजिक अपराध है तथा हम दण्ड के पात्र हैं.
One may claim proprietorship to as much wealth, as is required to maintain himself; but he who desires proprietorship over more than that, must be considered a thief; he deserves to be punished.
विपदी धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रम: ।
यशसि चाभिरूचिव्र्यसनं श्रुतौ प्रकॄतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥
आपातकाल में धैर्य, अभ्युदय मे क्षमा, सदन मे वाक्पटुता, युद्ध के समय बहादुरी, यशमे अभिरूचि, ज्ञान का व्यसन ये सब चीजें महापुरूषों में नैसर्गिक रूप से पायी जाती है.
Courage in adversity, patience in prosperity, oratory in assembly, bravery in battle, full of interest in fame, attachment to knowledge; all these are naturally found in the great persons.
आस्ते भग आसीनस्य }ध्र्वम् तिष्ठति तिष्ठत: ।
शेते निषद्यमानस्य चरति चरतो भग: ॥
जो मनुष्य (कुछ काम किए बिना) बैठता है, उसका भाग्य भी बैठता है. जो खड़ा रहता है, उसका भाग्य भी खड़ा रहता है. जो सोता है उसका भाग्य भी सोता है और जो चलने लगता है, उसका भाग्य भी चलने लगता है. अर्थात कर्म से ही भाग्य बदलता है.
Fortune of a person who sits idle, also sits idle. That of who stands, also stands. That of who sleeps, also sleeps, and fortune of a person, who walks, also walks. Here, subhashitkar says that fortune does not bring any thing to life, one who Works, or puts efforts, succeeds (you can say his fortune also works for him). In other words God helps them, who help themselves.
श्रमेण दु:खं यत्किन्चिकार्यकालेनुभूयते |
कालेन स्मर्यमाणं तत् प्रामोद ||
काम करते समय होने वाले कष्ट के कारण थोड़ा दु:ख तो होता है. परन्तु भविष्य में उस काम का स्मरण हुआ तो निश्चित ही आनंद होता है.
While working hard we do feel a bit of sadness due to the adverse conditions. But surely in future when we think of ‘that’ work, it gives us the happiness and satisfaction (Of having completed the work up to the expectation). Any good and positive work to be done cannot be done without facing the hardship. At the moment of actually doing the work we may feel the heat of it! But in future the memories of it will surely give a pleasant and cool experience!
स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन् ।
कर्पूर: पावकस्पॄष्ट: सौरभं लभतेतराम् ॥
अच्छा व्यक्ति आपातकाल में भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है, कपूर अग्नि के स्पर्श से अधिक खुशबू निर्माण करता है.
A good person never gives up his/her nature even when caught in a disaster. Camphor caught with fire, emits more fragrance.
खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी |
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा: ||
जब तक चन्द्रमा उगता नही, जुगनू भी चमकता है। परन्तु जब सूरज उगता है तब जुगनू भी नहीं होता तथा चन्द्रमा भी नहीं, दोनो सूरज के सामने फीके पड़ते हैं। मतलब जब तक वास्तविक ज्ञानी उपस्थित नही होता तब तक अज्ञानी और अल्पज्ञानी अपने ज्ञान का बखान करते रहते है.
The glittering fly appears bright (or is visible) only until the absence of moon in the sky. But when the Sun rises, there is neither the glittering fly nor the moon! In absence of a true great person, a mediocre will also appear like a great person. But nobody will notice such person in presence of a truly great individual.
वनेऽपि सिंहा मॄगमांसभक्षिणो बुभुक्षिता नैव तॄणं चरन्ति ।
एवं कुलीना व्यसनाभिभूता न नीचकर्माणि समाचरन्ति ॥
जंगल मे मांस खाने वाले शेर भूख लगने पर भी जिस तरह घास नही खाते, उस तरह उच्च कुल मे जन्मे हुए व्यक्ति (सुसंस्कारित व्यक्ति) संकट काल मे भी नीच काम नही करते.
Lions in forest, who eat flesh of other animals – will not eat grass even if they are very hungry. Similarly, persons born in good families will not perform any misconduct even in odds. Meaning of respectable family should be taken here as a good cultured families – families with values. When a person is having a bad time, to overcome it, he may do something that is ethically wrong, e.g. a person can steal somebody else’s food if he is starving. A cultured person will die – but not do such things.
यत्र नार्य: तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्र एता: तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्र अफला: क्रिया: ॥
जहां स्त्रियों को मान दिया जाता है तथा उनकी पूजा होती है वहां देवताओं का निवास रहता है. परन्तु जहां स्त्रियों की निंदा होती है तथा उनका सम्मान नही किया जाता वहां कोइ भी कार्य सफल नही होता.
Where women are adored and given respect, the Gods like to stay in such places. But where women are given ill-treatment, at such places no work is successful because of absence of Gods.
न अन्नोदकसमं दानं न तिथिद्र्वादशीसमा ।
न गायत्रया: परो मन्त्रो न मातु: परदैवतम् ॥
अन्नदान जैसा दान नहीं है. द्वादशी जैसी पवित्र तिथि नहीं है. गायत्री मन्त्र सर्वश्रेष्ठ मंत्र है तथा माता सब देवताओं से भी श्रेष्ठ है.
Giving water and food is the best among various donations. ‘Dwadashi’ is the most auspicious among all the days. ‘Gayatri Mantra’ is the best among all the ‘Mantras’ and mother is superior over all the Gods. [‘dwadashi’ – 12th day of a fortnight – In Hindu system of calendar a ‘dwadashi’ comes twice in a month – once in the ‘shukla paksha’ when moon is in the waxing phase and once in the ‘krishna paksha’ when moon is in the waning phase.]
अणुभ्यश्च महद्भ्यश्च शास्त्रेभ्य: कुशलो नर: ।
सर्वत: सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पद: ॥
भवरा जैसे छोटे बडे सभी फूलो मे से केवल मधु इकठ्ठा करता है उसी तरह चतुर मनुष्य ने शास्त्रो मे से केवल उनका सार लेना चाहिए.
A wise person should gather only important parts (gist) of knowledge from all ‘shaastras’ (because they are many and it is impractical to learn everything in depth) – juts as a bee gathers (only) honey from all types of flowers (and does not collect flowers).
यो यमर्थं प्रार्थयते यदर्थं घटतेऽपि च ।
अवश्यं तदवाप्नोति न चेच्छ्रान्तो निवर्तते ॥
कोई मनुष्य अगर कुछ चाहता है और उसके लिए अथक प्रयत्न करता है तो वह उसे प्राप्त करके ही रहता है.
If a person wants something, and if he makes efforts to achieve it – without getting tired – then no doubt he gets it.
कार्यमण्वपि काले तु कॄतमेत्युपकारताम् ।
महदप्युपकारोऽपि रिक्ततामेत्यकालत: ॥
किसी का छोटा सा भी काम अगर सही समय पर करे तो वह उपकारक होता है. परंतु अगर गलत समयपे करे तो बहुत बडा काम भी किसी काम का नही होता है.
Even a very small thing done for somebody is very helpful if done at a proper time. But if one does not do it at a proper time (does it when it is not called for), then a (apparently) big favour to a person will be in vain.
दैवमेवेह चेत् कर्तृपुंस: किमिव चेष्टया।
स्नानदानासनोच्चारान् दैवमेव करिष्यति।।
यदि भाग्य से ही सभी कार्य सिद्ध होने वाले हैं तो आपको कुछ करने की क्या आवश्यकता क्या है? स्नान, दान, धर्म, बैठना, बोलना यह सभी आपका भाग्य ही करेगा.
This subhashita is for them who believe in luck or fortune rather than their own capabilities. It says, if luck only is doing all your work, then why do you need to do anything? Your luck will also do your day to day activities like taking bath, giving donations, sitting and talking. Moral: don’t rely on fortune or other such things, rely on your own strengths.
ब्राम्हण: समक् शान्तो दीनानां समुपेक्षक: ।
स्त्रवते ब्रम्ह तस्यापि भिन्नभाण्डात् पयो यथा ॥
समदृष्टि के अभाव के कारण यदि ब्राम्हण किसी पीड़ित व्यक्ति की सहायता नही करता तो उसका ब्रम्हत्व समाप्त हो गया ऐसा समझना चाहिए.
If a brahmin with even (sama) attitude towards all (Samadrsti) does not act for giving relief to the weak (and opressed), it may be considered that, that brahmin has lost his Brahma lusture (energy), just like the milk(or water) streaming (or leaking) out from a pot that is leaking.
न ह्मम्मयानि तीर्थानि न देवा मॄच्छिलामया: ।
ते पुनन्त्युरूकालेन दर्शनादेव साधव: ॥
नदियों का पवित्र जल या भगवान की मूर्ति के दर्शन मात्र से भक्त का मन शुद्ध नही होता अपितु लंबे समय ध्यान लगाने के बाद ही अंत:करण शुद्ध होता है. परन्तु संतों के केवल दर्शन मात्र से ही हम पवित्र हो जाते है.
The holy places of water and idols of gods made out of stone do not purify the devotees immediately. They purify men after a long-standing adoration. But saints do so by a mere sight (as soon as devotees see them).
न कश्चिदपि जानाति किं कस्य श्वो भविष्यति
अत: श्व: करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान ॥
कल किसका क्या होगा कोई नहीं जानता , इसलिए बुद्धिमान लोग कल का काम आज ही करते है.
A man, having his body well pierced by the arrows is not pained (tormented) so much, as he suffers, when his mind is cut to the quick by shaft-like harsh words of the wicked.
न तथा तप्यते विद्ध: पुमान् बाणै: सुमर्मगै: ।
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्मसतां पुरूषेषव: ॥
मनुष्य के शरीर में लगे बाण उतनी वेदना नही देते जितनी वेदना कठोर शब्द देते है.
A man, having his body well pierced by the arrows is not pained (tormented) so much, as he suffers, when his mind is cut to the quick by shaft-like harsh words of the wicked.
द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्य: परं गत: ॥
इस जगत में केवल दो प्रकार के लोग परम आनन्द का अनुभव कर सकते है. एक है नन्हा सा बालक तथा दूसरा है परम योगी.
There are two (persons in this world), who are free from anxiety and filled with great delight: An ignorant child, without any activity and an ascetic beyond the three Gunas (i.e. Prakrti) – i.e. who has attained god.
तावज्जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रिय: पुमान् ।
न जयेद् रसनं यावद् जितं सर्वं जिते रसे ॥
जब तक मनुष्य अपने विविध आहार के उपर स्वनियंत्रण नही रखता तब तक उसने सब इन्द्रियों के उपर विजय पायी है ऐसा नही बोल सकते. आहार के उपर स्वनियंत्रण यही सब से आवश्यक बात है.
A man conquering all the other senses, as long as, he does not control the organ of taste (tongue), so long he cannot be called self-controlled. He becomes self-controlled (fully) with the control of the desire for taste in food.
मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते ।
यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति ||
जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है. परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्चात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पडते है.
As long as a sin is not mature (does not get ripe) so long an ignorant person considers it sweet like honey; but when the sin ripens he has to suffer it’s consequences. (has to suffer the misery, resulting from it).
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥
हम सब एक साथ चले; एक साथ बोले; हमारे मन एक हो. प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है.
Oh men! Go together harmoniously; speak together; understand each other’s minds; Just as gods from ancient times, having known each other’s minds did the job come to their lot, religiously, so you too act.
न कालो दण्डमुद्यम्य शिर: कॄन्तति कस्यचित् |
कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् ||
काल किसी का शस्त्र से शिरच्छेद नही करता पर वह बुद्धिभेद करता है जिससे मनुष्य को गलत रास्ता ही सही लगता है और वह अपने विनाश की ओर बढता है. बुद्धिभेद ही काल का बल है.
The time does not kill a person by weapons, but it destroys the thinking capability of a person and makes that person follow a wrong path – which ultimately leads to the destruction of that person. Corrupting the intellect is really the power of time!
वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा।
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि।।
अरण्य मे, रणभूमी में , शत्रुसमुदाय में , जल , अग्नि , महासागर या पर्वतशिखरपर तथा सोते हुए , उन्मत्त स्थिती में या प्रतिकूल परिस्थिती में मनुष्य के पूर्वपुण्य उसकी रक्षा करतें हैं.
When one is trapped in the middle of a jungle ,in the war, in the midst of enemies, water/flood or fire, in the ocean or on the mountains; while sleeping, in unconsciousness, or in (any kind of) odd situation – The good deeds that one might have done in the past, protect oneself.
नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते ।
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति संपद: ॥
विदुरनीति सागर कभी जल के लिए भिक्षा नही मांगता फिर भी वह सदैव जल से भरा रहता है. यदि हम अपने आप को योग्य बना दे तो सब साधन स्वयं ही अपने पास चले आएंगे
An ocean never begs (for water), yet it is always full of water. If one makes oneself worthy, riches come to that worthy person by themselves (with their own accord).
यस्यास्ति वित्तं स नर:कुलीन:, स पण्डित: स श्रुतवान् गुणज्ञ: ।
स एव वक्ता स च दर्शनीय:, सर्वे गुणा: काञ्चनमाश्रयन्ते ॥
जिसके पास धन है वही कुलीन कहलाता है. वही पण्डित, बहुश्रुत, गुणों की पहचान रखने वाला, वक्ता तथा दर्शनीय समझा जाता है. अर्थात, सभी गुण धन का आश्रय लेते है.
The one who is wealthy is (considered to be) of high descent. He is the one who is (assumed to be) scholar, famous, having ability to distinguish good qualities; orator and people would want to see him. All the good qualities are (considered to be) possessed by the affluent.
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागम: ॥
जैसे लकडी के दो टुकडे विशाल सागर में मिलते है तथा एक ही लहर से अलग हो जाते है उसी तरह दो व्यक्ति कुछ क्षणों के लिए सहवास में आते है फिर कालचक्र की गति से अलग हो जाते है.
Just as two pieces of wood come together in the great ocean (by the stroke of a wave) and after coming together separate, so does the association of living beings.
यदि सन्ति गुणा: पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम् न हि कस्तूरिकामोद: शपथेन विभाव्यते ||
मनुष्य के गुण अपने आप फैलते है, बताने नही पडते| (जिस तरह), कस्तूरी का गंध सिद्ध नही करना पडता.
If a person has good qualities, they spread by themselves (others get to know about his qualities automatically, he does not have to advertise them).
यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति तथा गुरुगतं विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति ||
भूमि मे प्रहार से गड्ढा करने वाले को जिस तरह पानी मिलता है, उसी तरह गुरु की सेवा करने वाले को विद्या प्राप्त होती है.
Just as a person gets water after digging earth with a spade, so also a student who serves his guru gets knowledge.
गुरूशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा ।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते ॥
गुरू की सेवा करने से या भरपूर धन देने से विद्या प्राप्त कर सकते है अथवा एक विद्या का दूसरी विद्या के साथ विनिमय कर सकते है , (विद्या प्राप्त करने का चौथा कोई रास्ता उपलब्ध नहीं है)
Knowledge (is acquired) by serving the teacher, or by a lot of money or by (exchange of) knowledge. A fourth (path) is not available.
यदीच्छसि वशीकर्तुंं जगदेकेन कर्मणा ।
परापवादससेभ्यो गां चरन्तीं निवारय ॥
यदि किसी एक काम से आपको जग को वश करना है तो परनिन्दारूपी धन के खेत में चरनेवाली जिव्हारूपी गाय को वहाँं से हकाल दो अर्थात दुसरे की निन्दा कभी न करो. संस्कॄत मे गौ: शब्द के अनेक अर्थ है; सुभाषितकार ने गौ: के दो अर्थ ह्मइन्द्रिय जिव्हेन्द्रिय तथा गाय, लेकर शब्द का सुन्दर उपयोग किया है.
If you want to make this world obidient just by doing one thing, then chase off the cow (the toungue) grazing the field of grains (of blaming, cursing others) Do not curse, criticize others.
यथा हि पथिक: कश्चित् छायामाश्रित्य तिष्ठति ।
विश्रम्य च पुनर्गच्छेत् तद्वद् भूतसमागम: ॥
जिस प्रकार यात्रा करने वाला पथिक थोडे समय वॄक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे निकल जाता है उसी समान अपने जीवन में अन्य मनुष्य थोडे समय के लिए उस वॄक्ष की तरह छांव देते है और फिर उनका साथ छूट जाता है.
As a certain traveller remains under a shade (of some tree) and having refreshed himself again goes on (his journey), so does the company of living beings.
किम् कुलेन विशालेन विद्याहीनस्य देहिन: |
अकुलीनोऽपि विद्यावान् देवैरपि सुपूज्यते ||
अच्छे कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति अगर ज्ञानी न हो, तो (उसके अच्छे कुल का) क्या फायदा. ज्ञानी व्यक्ति अगर कुलीन न हो, तो भी, इश्वर भी उसकी पूजा करते है.
What is use of a person who is born in high clan (vishAla kula ) but is devoid of Knowledge (VidhyAhIna) . (i.e. how does it matter even if a person is born in respected family, if he is devoid of knowledge).If a person is knowledgeable, then he is worshiped even by Gods, even if he is born in a low clan.
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत: ।
उत्पथं प्रातिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् ॥
आदरणीय तथा श्रेष्ठ व्यक्ति यदि व्यक्तिगत अभिमान के कारण धर्म और अधर्म में भेद करना भूल गए या फिर गलत मार्ग पर चले तो ऐसे व्यक्ति को शासन करना न्याय ही है.
A preceptor or an elderly person, if puffed up with pride,if unable to discriminate between the proper and improper thing to be done, and has taken to a wrong path, punishment in his case is just. (No need to feel the ‘weight’ of the past greatness of that person!)
कस्यचित् किमपि नो हरणीयं मर्मवाक्यमपि नोच्चरणीयम् |
श्रीपते: पदयुगं स्मरणीयं लीलया भवजलं तरणीयम् ||
दूसरों की कोई वस्तु कभी चुरानी नही चाहिए. दूसरे के मर्मस्थान पर आघात हो ऐसा कभी बोलना नही चाहिए. श्री विष्णु के चरण का स्मरण करना चाहिए. ऐसा करने से भवसागर पार करना सरल हो जाता है.
One should never steal others belongings. One should never utter a harsh word about another person (especially something which exposes his deficiencies). One should think about holy feet of Vishnu (one shold worship Vishnu from heart). If one does this, he can attain moksha easily.
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें ॥
The one who is as white (beautiful) as kundapushpa ( jasmine or lily flower-two from two different dictionaries), moon or a garland of dewdrops, whose attire is white, whose hand is decorated with Veena (a string instrument), who is sitting on a white lotus, who is always worshipped by Gods like BrahmA, VishNu and Mahesh, Let the Godess SaraswatI, who puts an end to lethargy, protect me!
दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये संचयो न कर्तव्य: |
पश्येह मधुकरीणां संचितार्थ हरन्त्यन्ये ||
दान कीजिए या उपभोग लीजिए, धन का संचय न करें देखिए, मधुमक्खी का संचय कोई और ले जाता है.
It should be given (donated) or enjoyed and spent. As far as money is concerned it should never be stocked up. Look here, the collected savings of the bees are stolen by others.
नालसा: प्राप्नुवन्त्यर्थान न शठा न च मायिन: न च लोकरवाद्भीता न च शश्वत्प्रतीक्षिण: ||
आलसी मनुष्य कभी भी धन नही कमा सकता (वह अपने जीवन मे सफल नही हो सकता). दूसरों की बुराई चाहने वाला तथा उनकी वंचना करने वाला, लोग क्या कहेंगे यह भय रखनेवाला, और अच्छे मौके की अपेक्षा मे कृतिहीन रहनेवाला भी धन नहीं कमा सकता.
A lazy person can never earn wealth (or he can never achieve any thing), neither a wicked person, nor a rogue. The one who worries about others’ reactions about his deeds, and the one who waits for long time (for good opportunity) also can not earn wealth. A person must be very active, honest, loyal, confident and quick in actions, in order to achieve his goal.
असूयैकपदं मॄत्यु: अतिवाद: श्रियो वध: ।
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय: ॥
विद्यार्थी के संबंध में द्वेश यह मॄत्यु के समान है. अनावश्यक बाते करने से धन का नाश होता है. सेवा करने की मनोवॄत्ती का आभाव, जल्दबाजी तथा स्वयं की प्रशंसा स्वयं करना यह तीन बाते विद्या ग्रहण करने के शत्रु है.
In case of a student envy is (sudden) death, to much talking is the destruction of wealth. Unwillingness to serve, haste and boasting (or self-praise) these are enemies of learning.
ग्रन्थानभ्यस्य मेघावी ज्ञान विज्ञानतत्पर: ।
पलालमिव धान्यार्थी त्यजेत् सर्वमशेषत: ॥
बुद्धिमान मनुष्य जिसे ज्ञान प्रााप्त करने की तीव्र इच्छा है वह ग्रन्थो में जो महत्वपूर्ण विषय है उसे पढकर उस ग्रन्थ का सार जान लेता है तथा उस ग्रन्थ के अनावष्यक बातों को छोड देता है उसी तरह जैसे किसान केवल धान्य उठाता है.
An intelligent man, eager to have knowledge and wisdom, studies the books and discards what is unimportant, grasping the essence (only) just as a farmer abandons useless husk completely and picks essential grains only.
क्षमा शस्त्रं करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति ।
अतॄणे पतितो वन्हि: स्वयमेवोपशाम्यति ॥
क्षमारूपी शस्त्र जिसके हाथ में हो, उसे दुर्जन क्या कर सकता है? अग्नि, जब किसी जगह पर गिरती है जहाँ घास न हो, अपने आप बुझ जाती है .
What can a wicked person do to someone who has the weapon of forgiveness in his hands ? Fire fallen on ground without any grass extinguishes by itself.
यस्य चित्तं निर्विषयं हृदयं यस्य शीतलम्।
तस्य मित्रं जगत्सर्वं तस्य मुक्ति: करस्थिता।।
जिसका मन इंद्रियों के वश में नहीं है, जिसका हृदय शांत है, संपूर्ण विश्व जिसका मित्र है ऐसे मनुष्य को मुक्ति सहजता से प्राप्त होती है.
He, whose mind is free from objects of senses and whose heart is calm (free from passion, anger, greed etc.), entire world is his friend and liberation or emancipation is as if in his hand only. (He is as good as liberated).
अधीत्य चतुरो वेदान् सर्वशास्त्राण्यनेकश: ।
ब्रम्ह्मतत्वं न जानाति दर्वी सूपरसं यथा ॥
सिर्फ वेद तथा शास्त्रों का बार बार अध्ययन करनेसे किसी को ब्राह्मतत्व का अर्थ नही होता. जैसे जिस चमच से खाद्य पदार्थ परोसा जाता है उसे उस खाद्य पदार्थ का गुण तथा सुगंध प्रााप्त नही होता.
Mere reading of the four vedas and all the shastras number of times, is not enough for obtaining the real knowledge of Brahman (Realisation of the supreme being), Just as a spoon in a vessel used for serving, does not get the taste of the thing served from that pot. (For realisation of highest principle, listening the shastras, meditating on them, and their constant study, observing of the restrictions etc. are necessary.)
अप्यब्धिपानान्महत: सुमेरून्मूलनादपि ।
अपि वहन्यशनात् साधो विषमश्चित्तनिग्रह: ॥
अपने स्वयं के मन का स्वामी होना, संपूर्ण सागर के जल को पीना, मेरू पर्वत को उखाडना या फिर अग्नि को खाना ऐसी असंभव बातों से भी कठिन है .
O good man! The control over mind is more difficult than drinking the water of entire ocean, uprooting the Meru mountain and also licking or eating the fire . (The control over the mind is more difficult than all the impossible things mentioned above).
नारून्तुद: स्यादार्तोपि न परद्रोहकर्मधी: ।
ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत् ॥
दूसरों से दु:ख मिलने पर भी वह शांत रहे, विचार से या कॄती से भी वह दूसरों को दु:ख न दे, उसके मुख से ऐसी वाणी न निकले जिससे दूसरे दु:खी हो, सारांश में वह ऐसा कोई काम न करे जिससे कि वो स्वर्ग से वंचित हो.
Let him not, even though pained by others (speak words) cutting (others) to the quick; let him not injure others in thought or deed; let him not utter words, which would pain others and prevent him from gaining heaven.
ॐ सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके | शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते ||
सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी, कल्याण करने वाली, सब के मनोरथ को पूरा करने वाली, तुम्हीं शरण ग्रहण करने योग्य हो, तीन नेत्रों वाली यानी भूत भविष्य वर्तमान को प्रत्यक्ष देखने वाली हो, तुम्ही शिव पत्नी, तुम्ही नारायण पत्नी अर्थात भगवान के सभी स्वरूपों के साथ तुम्हीं जुड़ी हो, आप को नमस्कार है.
लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्॥
पुत्र का पांच वर्ष तक लालन करे । दस वर्ष तक ताड़न करे । सोलहवां वर्ष लग जाने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए.
अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् |
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् ||
आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ |
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ||
मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता |
यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् |
एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति ||
जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है |
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ||
जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति |
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ||
अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है,वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढ़ाता है और पाप से मुक्त करता है | चित्त को प्रसन्न करता है और ( हमारी )कीर्ति को सभी दिशाओं में फैलाता है |(आप ही ) कहें कि सत्संगतिः मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती |
चन्दनं शीतलं लोके,चन्दनादपि चन्द्रमाः |
चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः ||
संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अच्छे मित्रों का साथ चन्द्र और चन्दन दोनों की तुलना में अधिक शीतलता देने वाला होता है |
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
यह मेरा है,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है |
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् |
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ||
महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना पुण्य होता है और दूसरी — पाप का अर्थ होता है दूसरों को दुःख देना |
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन,
दानेन पाणिर्न तु कंकणेन,
विभाति कायः करुणापराणां,
परोपकारैर्न तु चन्दनेन ||
कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सुनने से होती है | हाथ दान करने से सुशोभित होते हैं न कि कंकणों से | दयालु / सज्जन व्यक्तियों का शरीर चन्दन से नहीं बल्कि दूसरों का हित करने से शोभा पाता है |
पुस्तकस्था तु या विद्या,परहस्तगतं च धनम् |
कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् ||
पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के समय हमारे किसी भी काम नहीं आया करते |
विद्या मित्रं प्रवासेषु,भार्या मित्रं गृहेषु च |
व्याधितस्यौषधं मित्रं, धर्मो मित्रं मृतस्य च ||
ज्ञान यात्रा में,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे बड़ा ) मित्र होता है |
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् |
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ||
अचानक ( आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयोंकि विवेकशून्यता सबसे बड़ी विपत्तियों का घर होती है | ( इसके विपरीत ) जो व्यक्ति सोच –समझकर कार्य करता है ; गुणों से आकृष्ट होने वाली माँ लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव कर लेती है |
( अर्जुन उवाच )
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||
( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ |
(श्री भगवानुवाच )
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||
( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है|
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः
गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है,गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम
करचरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा ।
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधं ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व ।
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥
Oh Lord kindly forgive my wrong actions done knowingly or unknowingly, either through my organs of action (hand, feet, speech) or through my organs of perception (eyes, ears) or by my mind. Glory unto Thee O Lord, who is the ocean of kindness.
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥
Meaning:
1: (I Meditate on Lord Vishnu) Who has a Serene Appearance (which fills our inner being with Peace); Who is Lying on (the Bed of) Serpent (Ananta or Adisesha, representing the eternal Primal Energy or Mula Prakriti); From Whose Navel is springing up a Lotus (which is the source of all Creations through Brahmadeva); and Who is (presiding over the various elements of those Creations as) the Lord of the Devas,
2: Who is the Substratum of the whole Universe (as Consciousness); and (Boundless and Infinite) like the Sky (Chidakasha); with a Form Bluish in Colour like the Cloud, (The Form) which is radiating Auspiciousness (which fills our inner being with Bliss);
3: Who is the Beloved of Devi Lakshmi with Eyes Beautiful like Lotus petals; Who is Attainable by the Yogis only through (Devotional) Meditation,
4: I Worship that All-Pervading Vishnu Who Removes the Fear of Worldly Existence (by making us realize that we are not isolated beings internally but are eternally connected to Him); I Worship that Vishnu Who is the One Lord of All the Lokas (Worlds).
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तद्-अहं भक्त्य्-उपहृतम्-अश्नामि प्रयतात्मनः ||
Whoever offers to Me (Lord Vishnu) with devotion a leaf, a flower, a fruit or some water, I accept this offering made with devotion by one who is pure of heart.
संस्कृत श्लोक से सम्बंधित प्रश्न (FAQs)
सुभाषितानि का अर्थ क्या है?
सु का अर्थ अच्छा/ सुन्दर है।भाषित यानी उक्ति/वचन/ कथन/ बात है। तो सुभाषित का अर्थ है सूक्ति। सुभाषित शब्द के प्रथमा विभक्ति बहुवचन का रूप है सुभाषितानि यानी सूक्तियां।
श्लोक किसे कहते हैं?
संस्कृत की दो पंक्तियों की रचना, जिनके द्वारा किसी प्रकार का कथोकथन किया जाता है, श्लोक कहलाता है। संस्कृत कविता के बीच इसकी लोकप्रियता के कारण, सभी छंदों को आमतौर पर श्लोक कहा जाता है।
श्लोक और मंत्र में क्या अंतर है?
वेदों में आई सारी ऋचाएं मंत्र कहलाती हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि वे स्वयं प्रकट हुई थीं, इन्हें किसी ने लिखा नहीं था। यह मन से उत्पन्न है इसलिए मंत्र कहलाते हैं। जबकि श्लोक (Shloka) का अर्थ ठीक इसके विपरीत है। जो किसी के द्वारा लिखा गया हो, जिसे किसी ने रचा हो, उसे श्लोक कहते हैं।
यह भी देखें: सब्जियों के नाम हिंदी, इंग्लिश, संस्कृत में