सीता हरण ही रामायण में घटित एक ऐसी घटना है जो कि रामायण की उत्पत्ति की मुख्य वजह है। भगवान् अपनी संम्पूर्ण शक्तियों के साथ केवल एक मानव शरीर में अवतरित नहीं होते हैं। उनकी शक्तियाँ अनेक स्त्रियों, पुरषों व अन्य प्राणियों के रूप धारण कर भगवान् के अवतारित उद्देश्य में सहायक होते हैं।
जैसे प्रभु श्री राम के रूप में अपने तीनों भाईयों के साथ व माँ की शक्ति स्वरूपा सीता, उर्मिला, मांडवी तथा श्रुर्तिकीर्ति अवतरित हुए। जो उनके अवतार के उद्देश्य को पुरा कर पाने में उनके सहायक हुए।
अगर रामायण काल की सभी घटनाओं तथा सभी पात्रों का विशलेषण करें तो ज्ञात होता है कि हर एक यहां तक स्वंय रावण भी प्रभु से सदगति पाने हेतु सीता हरण करता है, वह सोचता है कि राम अगर प्रभु होगे तो उनके द्वारा मारे जाने से कल्याण होगा वरना उसकी विजय पताका निष्कंटक फहराती रहगी।
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सीता हरण वनवास काल के दौरान
रामायण काल में जब भगवान राम, माता सीता और छोटे भाई लक्ष्मणजी वनवास काट रहे थे, तो वे वन में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकते हुए ऋषि – मुनियों की सेवा और सहायता करते थे और साथ ही साथ उनकी पूजा – अर्चना और तपस्या को भंग करने वाले राक्षसों को दंडित करते थे और इस तरह उनकी रक्षा भी करते थे. इस कारण अब राक्षस ऋषि – मुनियों को परेशान नहीं करते थे।
भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मणजी सहित वन में घूमते – घूमते पंचवटी नामक स्थान पर पहुँचे. ये स्थान उन्हें बहुत ही रमणीय लगा और उन्होंने वनवास के अंतिम वर्षों में यही रहने का निश्चय किया। उन्होंने पंचवटी में गोदावरी नदी के तट पर अपने लिए एक छोटी सी कुटिया बनाई और फिर वही समय व्यतीत करने लगे।
शूर्पनखा का राम और लक्ष्मण से मिलना
वनवास का समय शांति पूर्ण तरीके से बीत रहा था, पहले की तुलना में राक्षसों का आतंक भी कम हो चुका था। इसी दौरान राक्षस कन्या शूर्पनखा वन भ्रमण को निकली और घूमते – घूमते गोदावरी नदी के पास पंचवटी पहुँची और वहाँ उन्होंने भगवान राम को देखा और उनके गौर वर्ण और सुन्दर रूप को देखकर उन पर मोहित हो गयी।
शूर्पनखा ने सुन्दर – सा रूप धारण किया और वो भगवान राम के पास जाकर बोली कि हे राम, मैं आपसे विवाह करना चाहती हूँ, तब प्रभु श्री राम ने ये कहते हुए, ये प्रस्ताव ठुकराया कि वे विवाहित हैं और उनकी धर्मपत्नि सीता उनके साथ ही हैं और ये कहकर उन्होंने अपनी पत्नि सीता की ओर इशारा किया।
तब उन्होंने लक्ष्मणजी के साथ ठिठोली करने की मंशा से शूर्पनखा से कहा, कि मेरा एक छोटा भाई हैं, वह भी मेरी ही तरह सुन्दर रूप और शरीर सौष्ठव रखता हैं और जो वन में अकेला भी हैं, तो आप उनके पास अपना प्रेमपूर्ण विवाह प्रस्ताव ले जाये, आपकी मनोकामना पूर्ण हो जाएगी।
तब शूर्पनखा अपनी विवाह की इच्छा लेकर लक्ष्मणजी के पास गयी और उन्हें अपनी विवाह करने की इच्छा जताई, तो लक्ष्मणजी ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा, कि मैं तो अपने भैया और भाभी का दास हूँ और अगर तुम मुझसे विवाह करोगी, तो तुम्हें भी उनकी दासी बनकर रहना होगा। शूर्पनखा ने इसे अपना अपमान माना और ये सोचकर माता सीता पर हमला कर दिया, कि अगर सीता की मृत्यु हो गयी, तो राम मुझसे विवाह करने के लिए तैयार हो जाएँगे।
तब लक्ष्मण जी ने क्रोध में आकर शूर्पनखा पर प्रहार किया और अपनी तलवार से उसके नाक काट दिए। इस प्रकार के अनपेक्षित प्रहार से वह दर्द और अपमान भरे मन से अपने भाई खर और दूषण के पास गयी और अपने राक्षस भाइयों से बदला लेने के लिए कहा।
शूर्पनखा द्वारा अपने भाइयों को युद्ध के लिए कहना
शूर्पनखा अपने राक्षस भाइयों खर और दूषण के पास जाकर राम और लक्ष्मण से युद्ध करने के लिए उकसाया और कहा कि मेरे इस अपमान का बदला लो. तब खर और दूषण ने राम और लक्ष्मण पर हमला किया, परन्तु दोनों ही राम और लक्ष्मण द्वारा मारे गये।
खर और दूषण की मृत्यु के बाद शूर्पनखा और भी ज्यादा अपमानित महसूस करने लगी और पहले से भी ज्यादा क्रोध से भर गयी. इस कारण वो राक्षसों के राजा और अपने बड़े भाई लंकापति रावण के पास गयी और रावण – रावण कहकर इस प्रकार कराहती और चीखती हुई, अपनी कथा सुनाई. साथ ही साथ सीता की सुन्दरता का भी बखान किया और रावण को अपने अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध करने के लिए उकसाया।
सीता हरण की कथा (Sita Haran Story)
सीता के रूप और लावण्य का विस्तृत वर्णन सुनकर रावण के मन में कुटिल विचार आ गये। साथ ही साथ वह राम और लक्ष्मण की वीरता से भी प्रभावित हुआ और समझ गया कि इन दोनों के समीप रहते हुए, वह सीता का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। वह शूर्पनखा के अपमान का बदला लेने से ज्यादा सीता हरण के लिए लालायित था।
अपनी महत्वाकांक्षा को पूर्ण रखने के लिए रावण अपने ‘पुष्पक विमान’ में बैठ कर राक्षस मारीच के पास गया। मारीच ने तप द्वारा कुछ ऐसी शक्तियाँ प्राप्त कर ली थी, जिससे वह कोई भी रूप धारण कर सकता था और इसी शक्ति के आधार पर वह पहले कुटिलतापूर्ण क्रियाकलाप करता था। परन्तु वह अब वृद्ध हो चुका था और अब वह अपनी शेष आयु के साथ ये सब बुरे काम छोड़कर ईश्वर भक्ति में लग गया था।
वह रावण की इस प्रकार की कुटिल चाल में शामिल नहीं होना चाहता था, परन्तु रावण ने उसे अपने राक्षसराज होने का रौब दिखाया और अपनी चाल में शामिल होने के लिए तैयार कर लिया. वास्तव में मारीच इस कुकृत्य के लिए इसलिए तैयार हुआ, क्योंकि उसे पता था कि उसकी मृत्यु तो निश्चित हैं, क्योंकि अगर वो ये कार्य नहीं करता हैं, तो रावण उसे मार डालेगा और यदि करता हैं तो भगवान राम उसका वध कर देंगे, तो मारीच ने प्रभु श्री राम द्वारा मृत्यु का वरण करने का निश्चय किया।
रावण ने अपनी कुटिल बुद्धि से मारीच से कहा, कि वह एक स्वर्ण मृग का रूप धारण करके सीता को लालायित करें। तब मारीच ने सुनहरे हिरण का रूप धारण किया और माता सीता को लालायित करने के प्रयास करने लगा। माता सीता की दृष्टी जैसे ही उस स्वर्ण मृग पर पड़ी, उन्होंने भगवान राम से उस सुनहरे हिरण को प्राप्त करने की इच्छा जताई। भगवान राम सीताजी का ये प्रेमपूर्ण आग्रह मना नहीं कर पाए और छोटे भाई लक्ष्मणजी को सीताजी की सुरक्षा का ध्यान रखने का उत्तरदायित्व सौंपकर उस स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए अपने धनुष – बाण के साथ वन की ओर चले गये।
उन्हें गये हुए बहुत समय व्यतीत हो चुका था, इस कारण माता सीता को अपने प्रभु की चिंता होने लगी, कि कहीं प्रभु श्री राम पर कोई विपत्ति तो नहीं आ गयी और उन्होंने इस आशंका को लक्ष्मणजी के सामने प्रकट किया। तब लक्ष्मणजी ने उन्हें समझाया कि हे माता, आप व्यर्थ ही चिंता कर रही हैं, भैया राम पर कोई विपत्ति नहीं आ सकती और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। परन्तु माता सीता उनकी इस बात को समझ ही नहीं पा रही थी और जैसे – जैसे समय बीतता जा रहा था, उनकी चिंता भी बढती जा रही थी।
संध्या का समय हो रहा था, प्रभु श्री राम उस सुनहरे हिरण का पीछा करते हुए घने जंगल में जा पहुँचे थे और जब उन्हें लगा कि अब हिरण को पकड़ा जा सकता हैं, तो उन्होंने अपने धनुष से हिरण को निशाना बनाकर तीर छोड़ा, जैसे ही तीर मारीच को लगा, वह अपने वास्तविक रूप में आ गया और रावण की योजनानुसार भगवान राम की आवाज में दर्द से चीखने लगा:- “लक्ष्मण, बचाओ लक्ष्मण…. सीता, सीता….” ;
इस कराहती हुई आवाज को सुनकर सीताजी ने लक्ष्मणजी से कहा कि “तुम्हारे भैया किसी मुसीबत में फँस गये हैं और तुम्हें पुकार रहे हैं, अतः तुम जाओ और उनकी सहायता करो, उनकी रक्षा करो”। ये सुनकर लक्ष्मणजी ने पुनः माता सीता को समझाया कि “भाभी, भैया राम पर कोई मुसीबत नहीं आयी हैं और ये किसी असुरी शक्ति का मायाजाल हैं, अतः आप व्यर्थ ही चिंतित न हो”।
ये सुनकर भी माता सीता ने लक्ष्मणजी की एक न सुनी और उन पर ही क्रोधित हो गयी और उन्हें आदेश दिया कि “हे लक्ष्मण, तुम जाओ और मेरे प्रभु को सकुशल ढूंढकर लाओ।” माता सीता के इस प्रकार के आदेश के कारण लक्ष्मणजी को अपने भैया राम के आदेश की अवहेलना करनी पड़ी और वे प्रभु श्री राम की खोज में जाने के लिए तैयार हो गये। परन्तु लक्ष्मणजी अपने भैया राम के द्वारा दिए गये सीता माता की रक्षा करने के आदेश को पूर्ण करने के लिए उन्होंने एक उपाय सोचा और उस उपाय के अनुसार उन्होंने कुटिया के चारों ओर एक रेखा खींच दी, जिसके भीतर कोई नहीं आ सकता था।
फिर उन्होंने माता सीता से निवेदन किया कि “भाभी, ये लक्ष्मण द्वारा खिंची गयी लक्ष्मण – रेखा हैं, इसके भीतर कोई नहीं आ सकता और जब तक आप इसके भीतर हैं, आपको कोई हानि नहीं पहुंचा सकता, अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, जब तक मैं अथवा भैया राम वापस न लौट आये, तब तक आप इसके बाहर अपने चरण न रखें।” माता सीता इस बात के लिए सहमत हो गयी और कहा कि ठीक हैं, मैं इसके बाहर नहीं जाऊँगी, अब तुम प्रभु को ढूंढने जाओ। इस प्रकार के वार्तालाप के बाद लक्ष्मणजी भैया राम पुकारते हुए वन की ओर चले गये।
रावण, जो कि इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था, कि राम और लक्ष्मणजी कुटिया से दूर जाये और वह अपने कार्य को पूर्ण कर सकें। वह माता सीता का हरण करने के लिए कुटिया के पास पहुँच गया, परन्तु जैसे ही उसने कुटिया में प्रवेश करना चाहा, लक्ष्मणजी द्वारा खिंची गयी लक्ष्मण रेखा के कारण वह भीतर प्रवेश नहीं कर पाया। अब उसे अपनी योजना विफल होती हुई दिखाई दी, परन्तु फिर उसने सोचा कि वह भीतर नहीं जा सकता, परन्तु सीता तो बाहर आ सकती हैं और इस योजना को सफल करने के लिए उसने एक भिक्षुक का रूप धरा।
भिक्षुक रूपी रावण ने माता सीता को कुटिया से बाहर बुलाने के लिए आवाज लगाई “भिक्षां देहि [भिक्षा दीजिये]”. माता सीता ने जब इस प्रकार की आवाजें सुनी तो वे कुटिया से बाहर आयी और भिक्षुक रूपी रावण को भिक्षा देने लगी, परन्तु वे अब भी कुटिया के भीतर ही थी और रावण उनका अपहरण नहीं कर सकता था, तब रावण ने एक और स्वांग रचा. रावण, जो कि एक संन्यासी भिक्षुक के रूप में था, क्रोधित होने का नाटक करके कहने लगा कि “किसी संन्यासी को किसी बंधन में बंधकर भिक्षा नहीं दी जाती, आप इस कुटिया के बंधन से मुक्त होकर भिक्षा दे सकती हैं तो दे, अथवा मैं बिना भिक्षा लिए ही लौट जाऊंगा”।
रावण के इस कपट से अनजान माता सीता ने अत्यंत ही विनम्र भाव से कहा कि हे देव, मुझे आदेश हैं कि मैं इस कुटिया से बाहर न जाऊं, अतः आप कृपा करके यही से भिक्षा ग्रहण करें। परन्तु इस बात पर रावण कहाँ राजी होने वाला था। अतः उसने और भी क्रोधित होकर माता सीता से बाहर आकर भिक्षा देने को कहा और ऐसा न करने पर खाली हाथ लौट जाने को तैयार हो गया।
तब माता सीता ने सोचा कि एक भिक्षुक संन्यासी का इस तरह खाली हाथ लौट कर जाना ठीक नहीं और एक क्षण की ही तो बात हैं, ऐसा सोचकर वे लक्ष्मण – रेखा से बाहर आकर भिक्षा देने को तैयार हो गयी. रावण मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ और जैसे ही माता सीता लक्ष्मण – रेखा से बाहर आयी, रावण बड़ी ही शीघ्रता से पाने असली रूप में आया और उसने माता सीता का अपहरण कर लिया और उन्हें बल पूर्वक खींचता हुआ अपने पुष्पक – विमान में बैठा कर लंका की ओर प्रस्थान कर गया और इस प्रकार माता सीता का हरण हुआ।
माता सीता इस क्षणिक घटना क्रम को जैसे ही समझी, उन्होंने सहायता के लिए अपने पति श्री राम और देवर लक्ष्मणजी को पुकारा, परन्तु वे उस समय बहुत दूर होने के कारण माता सीता की आवाज सुन पाने में असमर्थ थे। परन्तु माता सीता ने इस विपत्ति के समय भी बड़ी ही बुद्धिमानी से काम लिया और उन्होंने अपने जाने का मार्ग दिखाने के लिए स्वयं के द्वारा पहने हुए आभूषण धरती की ओर फेंकना प्रारंभ कर दिए, जिन्हें देखकर प्रभु श्री राम को उन तक पहुँचने का मार्ग पता चल सकें।
इसी बीच माता सीता सहायता के लिए भी पुकार रही थी, जिसे सुनकर एक बड़ा सा पक्षी उनकी सहायता के लिए आया, इस विशालकाय पक्षी का नाम ‘जटायु’ था, वह रावण से युद्ध करने लगा, परन्तु अपने बूढ़े शरीर के कारण वह ज्यादा देर रावण का सामना नहीं कर पाया और फिर रावण ने उसके पंख काट दिये, इस कारण वह धरती पर गिर पड़ा और कराहने लगा।
दूसरी ओर भगवान राम और लक्ष्मणजी वन में मिल चुके थे और लक्ष्मणजी ने उन्हें बताया कि भाभी ने आपकी कराहती हुई आवाज सुनी और स्वयं को छोड़कर आपके रक्षण के लिए मुझे यहाँ आने के लिए विवश कर दिया। तब भगवान राम और लक्ष्मणजी समझ गये कि ये जरुर कोई असुरी शक्ति का मायाजाल हैं और सीताजी अभी संकट में हैं और इस प्रकार का विचार आते ही वे दोनों कुटिया की ओर दौड़ पड़े. परन्तु वे जैसे ही कुटिया में पहुँचे, वहाँ बिखरा हुआ सामान देखकर किसी अनहोनी की आशंका से भयभीत हो गये और दोनों ही सीताजी को खोजने लगे।
परन्तु उन्हें कहीं भी उनका पता नहीं चला. तभी उन्हें माता सीता के आभूषण दिखाई दिए, जिसे भगवान राम पहचान गये कि ये तो सीता के आभूषण हैं और वे उसी दिशा की ओर बढ़ने लगे, जहाँ माता सीता के आभूषण मिले थे। आगे चलते – चलते उन्हें और भी आभूषण मिले और फिर कुछ ही दूर पर एक विशालकाय घायल पक्षी दिखा, यह जटायु था, जिससे पूछने पर पता चल कि माता सीता को राक्षसों का राजा, लंकापति रावण सीता हरण करके ले गया हैं और इस प्रकार सीता हरण की सही जानकारी उन्हें प्राप्त हुई।
सीता हरण की कहानी से शिक्षा (Moral of the Sita Haran story)
रानी कैकयी के द्वारा 14 वर्षों का वनवास दिये जाने पर राम भी अपना अधिकार मांग सकते थे, वह बदले में कैकयी को जेल में डाल सकते थे, अपनी शक्तियों के बल पर संम्पूर्ण अयोध्या पर कब्जा कर सकते थे। इसी तरह लक्षमण भी राम के साथ वनवास न जा कर राजसुख भोगते। पर नहीं राम के अवतार का उद्देश्य पूर्ण करने हेतू माँ सीता जी ने अनेक कष्टों को भोगना स्वीकार किया। इसी तरह उर्मिला ने सासुओं की सेवा तथा लक्षमण के स्वामी सेवाव्रत हेतु पति से वियोग स्वीकार किया।
इसी तरह भरत की प्रेम भक्ति, हनुमान की स्वामीभक्ति प्रभु अवतार के उद्देश्य पूर्ण में सहायक हुए। लेकिन अन्य शक्तियाँ तभी सहायक होती हैं जब अवतार स्वयं कष्ट उठाने व परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेने को तत्पर होता है। इसीलिये मित्रों मन से जय श्री राम बोलते हुए उन जैसे गुणों को आत्मसात करने की कोशिश करनी चाहिये जिससे बैर, ईर्ष्या, क्रोध आदी का नाश हो और हमारी अच्छी शक्तियाँ हमारे जीवन का उद्देश्य पूर्ण करने में हमारी सहायक हों।
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