समास को हम इस तरह समझ सकते हैं कि संक्षिप्त करने की प्रक्रिया समास कहलाती है। समास का विपरीत शब्द होता है “व्यास”। वाक्य की सहायता से विश्लेषित शब्दों को व्यास वाक्य अथवा विग्रह-वाक्य कहते हैं।
अलग अलग पदों को आपस में मिला देना तो समास या समस्त पद कहलाता है, एवं आपस में मिले हुए पदों को अलग-अलग कर देना समास विग्रह कहलाता है। समास विग्रह करते समय यथा संभव मूल शब्द का ही प्रयोग करना चाहिए अर्थात किसी अन्य पर्यायवाची शब्द को समास विग्रह में नहीं लिखा जाना चाहिए।
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समास किसे कहते हैं? (Definition of Samas in Hindi)
समास शब्द ‘सम् + आस’ के योग से बना है; ‘सम्’ का अर्थ है ‘निकट/समीप’ तथा ‘आस’ का अर्थ है बैठना। जहां दो या दो से अधिक शब्द आपस में मिलकर पास-पास बैठ जाते हैं, उसे समास कहते हैं अर्थात दो या दो से अधिक शब्दों के मेल से बने सार्थक शब्दों के समूह को समास कहते हैं।
“समसन् समासः” इस सूत्र के अनुसार, संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया समास कहलाती है अर्थात किसी बड़ी पद रचना को छोटे रूप में प्रस्तुत करना ही समास कहलाता है।
समास के प्रकार (Types of Samas)
समास 6 प्रकार के होते हैं:
- तत्पुरुष समास
- कर्मधारय समास
- बहुब्रीहि समास
- अव्ययीभाव समास
- द्विगु समास
- द्वन्द्व समास
परस्पर मिलने वाले शब्दों की प्रधानता के आधार पर समास चार प्रकार के होते हैं:
- अव्ययीभाव समास
- तत्पुरुष समास
- द्वन्द्व समास
- बहुब्रीहि समास
नोट: परस्पर मिलने वाले शब्दों की प्रधानता के आधार पर कर्मधारय और द्विग्य समास को समास के मुख्य भेद के रूप में नही माना जाता है। ये दोनों तत्पुरुष समास के उपभेदों के अंतर्गत आते हैं।
हम समास के 6 प्रकार मानकर ही इनके बारे में आपको विस्तृत बताएँगे।
अव्ययीभाव समास
जिस समस्त पद में पहला पद अव्यय होता है, अर्थात् अव्यय पद के साथ दूसरे पद, जो संज्ञा या कुछ भी हो सकता है, का समास किया जाता है, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैँ। इस समास में प्रथम पद प्रधान होता है। प्रथम पद के साथ मिल जाने पर समस्त पद ही अव्यय बन जाता है। इन समस्त पदोँ का प्रयोग क्रियाविशेषण के समान होता है।
अव्यय शब्द वे हैँ जिन पर काल, वचन, पुरुष, लिँग आदि का कोई प्रभाव नहीँ पड़ता अर्थात् रूप परिवर्तन नहीँ होता। ये शब्द जहाँ भी प्रयुक्त किये जाते हैँ, वहाँ उसी रूप मेँ ही रहेँगे। जैसे– यथा, प्रति, आ, हर, बे, नि आदि।
यदि किसी पद में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति हो रही हो तो वहां पर भी अव्ययीभाव समास माना जाता है।
पद के क्रिया विशेषण अव्यय की भाँति प्रयोग होने पर अव्ययीभाव समास की निम्नांकित स्थितियाँ बन सकती हैँ–
- अव्यय+अव्यय– ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ, इधर-उधर, आस-पास, जैसे-तैसे, यथा-शक्ति, यत्र-तत्र।
- अव्ययोँ की पुनरुक्ति– धीरे-धीरे, पास-पास, जैसे-जैसे।
- संज्ञा+संज्ञा– नगर-डगर, गाँव-शहर, घर-द्वार।
- संज्ञाओँ की पुनरुक्ति– दिन-दिन, रात-रात, घर-घर, गाँव-गाँव, वन-वन।
- संज्ञा+अव्यय– दिवसोपरान्त, क्रोध-वश।
- विशेषण संज्ञा– प्रतिदिवस, यथा अवसर।
- कृदन्त+कृदन्त– जाते-जाते, सोते-जागते।
- अव्यय+विशेषण– भरसक, यथासम्भव।
अव्ययीभाव समास के उदाहरण:
- यथारूप – रूप के अनुसार
- यथायोग्य – जितना योग्य हो
- यथाशक्ति – शक्ति के अनुसार
- प्रतिक्षण – प्रत्येक क्षण
- भरपूर – पूरा भरा हुआ
- अत्यन्त – अन्त से अधिक
- रातोँरात – रात ही रात मेँ
- अनुदिन – दिन पर दिन
- निरन्ध्र – रन्ध्र से रहित
- आमरण – मरने तक
- आजन्म – जन्म से लेकर
- आजीवन – जीवन पर्यन्त
- प्रतिशत – प्रत्येक शत (सौ) पर
- भरपेट – पेट भरकर
- प्रत्यक्ष – अक्षि (आँखोँ) के सामने
- दिनोँदिन – दिन पर दिन
- सार्थक – अर्थ सहित
- सप्रसंग – प्रसंग के साथ
- प्रत्युत्तर – उत्तर के बदले उत्तर
- यथार्थ – अर्थ के अनुसार
- आकंठ – कंठ तक
- घर–घर – हर घर/प्रत्येक घर
- यथाशीघ्र – जितना शीघ्र हो
- श्रद्धापूर्वक – श्रद्धा के साथ
- अनुरूप – जैसा रूप है वैसा
- अकारण – बिना कारण के
- हाथोँ हाथ – हाथ ही हाथ मेँ
- बेधड़क – बिना धड़क के
- प्रतिपल – हर पल
- नीरोग – रोग रहित
- यथाक्रम – जैसा क्रम है
- साफ–साफ – बिल्कुल स्पष्ट
- यथेच्छ – इच्छा के अनुसार
- प्रतिवर्ष – प्रत्येक वर्ष
- निर्विरोध – बिना विरोध के
- नीरव – रव (ध्वनि) रहित
- बेवजह – बिना वजह के
- प्रतिबिँब – बिँब का बिँब
- दानार्थ – दान के लिए
- उपकूल – कूल के समीप की
- क्रमानुसार – क्रम के अनुसार
- कर्मानुसार – कर्म के अनुसार
- अंतर्व्यथा – मन के अंदर की व्यथा
- यथासंभव – जहाँ तक संभव हो
- यथावत् – जैसा था, वैसा ही
- यथास्थान – जो स्थान निर्धारित है
- प्रत्युपकार – उपकार के बदले किया जाने वाला उपकार
- मंद–मंद – मंद के बाद मंद, बहुत ही मंद
- प्रतिलिपि – लिपि के समकक्ष लिपि
- यावज्जीवन – जब तक जीवन रहे
- प्रतिहिँसा – हिँसा के बदले हिँसा
- बीचोँ–बीच – बीच के बीच मेँ
- कुशलतापूर्वक – कुशलता के साथ
- प्रतिनियुक्ति – नियमित नियुक्ति के बदले नियुक्ति
- एकाएक – एक के बाद एक
- प्रत्याशा – आशा के बदले आशा
- प्रतिक्रिया – क्रिया से प्रेरित क्रिया
- सकुशल – कुशलता के साथ
- प्रतिध्वनि – ध्वनि की ध्वनि
- सपरिवार – परिवार के साथ
- दरअसल – असल मेँ
- अनजाने – जाने बिना
- अनुवंश – वंश के अनुकूल
- पल–पल – प्रत्येक पल
- चेहरे–चेहरे – हर चेहरे पर
- प्रतिदिन – हर दिन
- प्रतिक्षण – हर क्षण
- सशक्त – शक्ति के साथ
- दिनभर – पूरे दिन
- निडर – बिना डर के
- भरसक – शक्ति भर
- सानंद – आनंद सहित
- व्यर्थ – बिना अर्थ के
- यथामति – मति के अनुसार
- निर्विकार – बिना विकार के
- अतिवृष्टि – वृष्टि की अति
- नीरंध्र – रंध्र रहित
- यथाविधि – जैसी विधि निर्धारित है
- प्रतिघात – घात के बदले घात
- अनुदान – दान की तरह दान
- अनुगमन – गमन के पीछे गमन
- प्रत्यारोप – आरोप के बदले आरोप
- अभूतपूर्व – जो पूर्व मेँ नहीँ हुआ
- आपादमस्तक – पाद (पाँव) से लेकर मस्तक तक
- यथासमय – जो समय निर्धारित है
- घड़ी–घड़ी – घड़ी के बाद घड़ी
- अत्युत्तम – उत्तम से अधिक
- अनुसार – जैसा सार है वैसा
- निर्विवाद – बिना विवाद के
- यथेष्ट – जितना चाहिए उतना
- अनुकरण – करण के अनुसार करना
- अनुसरण – सरण के बाद सरण (जाना)
- अत्याधुनिक – आधुनिक से भी आधुनिक
- निरामिष – बिना आमिष (माँस) के
- घर–घर – घर ही घर
- बेखटके – बिना खटके
- यथासामर्थ्य – सामर्थ्य के अनुसार
तत्पुरुष समास
जिस समास मेँ दूसरा पद अर्थ की दृष्टि से प्रधान हो, उसे तत्पुरुष समास कहते हैँ। इस समास मेँ पहला पद संज्ञा अथवा विशेषण होता है इसलिए वह दूसरे पद विशेष्य पर निर्भर करता है, अर्थात् दूसरा पद प्रधान होता है। तत्पुरुष समास का लिँग–वचन अंतिम पद के अनुसार ही होता है। जैसे– जलधारा का विग्रह है– जल की धारा। ‘जल की धारा बह रही है’ इस वाक्य मेँ ‘बह रही है’ का सम्बन्ध धारा से है जल से नहीँ। धारा के कारण ‘बह रही’ क्रिया स्त्रीलिँग मेँ है। यहाँ बाद वाले शब्द ‘धारा’ की प्रधानता है अतः यह तत्पुरुष समास है।
तत्पुरुष समास मेँ प्रथम पद के साथ कर्त्ता और सम्बोधन कारकोँ को छोड़कर अन्य कारक चिह्नोँ (विभक्तियोँ) का प्रायः लोप हो जाता है। अतः पहले पद मेँ जिस कारक या विभक्ति का लोप होता है, उसी कारक या विभक्ति के नाम से इस समास का नामकरण होता है। जैसे – द्वितीया या कर्मकारक तत्पुरुष = स्वर्गप्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त।
कारक चिह्न इस प्रकार हैँ –
क्र.सं. | कारक का नाम | चिह्न |
---|---|---|
1 | कर्ता | ने |
2 | कर्म | को |
3 | करण | से (के द्वारा) |
4 | सम्प्रदान | के लिए |
5 | अपादान | से (पृथक भाव मेँ) |
6 | सम्बन्ध | का, की, के, रा, री, रे |
7 | अधिकरण | मेँ, पर, ऊपर |
8 | सम्बोधन | हे!, अरे! ओ! |
♦ तत्पुरुष समास के उपभेद –
तत्पुरुष समास के उपभेद निम्नलिखित हैं–
1. लुप्त कारक चिन्ह तत्पुरुष समास:
जब किसी पद में दोनों पदों के मध्य में कर्म कारक से लेकर अधिकरण कारक तक का कोई चिन्ह लुप्त रहता है तो वहां लुप्त कारक चिन्ह तत्पुरुष समास माना जाता है। इस समास के पदों का विग्रह कार्य करते समय दोनों पदों के बीच में उस कारक चिन्ह को लिख दिया जाता है तथा समास का नाम निर्धारण करते समय सम्बंधित कारक का नाम लिख दिया जाता है। कर्म कारक से लेकर अधिकरण कारक इस प्रकार हैं:
(क) कर्म तत्पुरुष – इसमें कर्म कारक की विभक्ति ‘को’ का लोप हो जाता है।
- हस्तगत – हाथ को गत
- जातिगत – जाति को गया हुआ
- मुँहतोड़ – मुँह को तोड़ने वाला
- दुःखहर – दुःख को हरने वाला
- यशप्राप्त – यश को प्राप्त
- पदप्राप्त – पद को प्राप्त
- ग्रामगत – ग्राम को गत
- स्वर्ग प्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त
- देशगत – देश को गत
- आशातीत – आशा को अतीत(से परे)
- चिड़ीमार – चिड़ी को मारने वाला
- कठफोड़वा – काष्ठ को फोड़ने वाला
- दिलतोड़ – दिल को तोड़ने वाला
- जीतोड़ – जी को तोड़ने वाला
- जीभर – जी को भरकर
- लाभप्रद – लाभ को प्रदान करने वाला
- शरणागत – शरण को आया हुआ
- रोजगारोन्मुख – रोजगार को उन्मुख
- सर्वज्ञ – सर्व को जानने वाला
- गगनचुम्बी – गगन को चूमने वाला
- परलोकगमन – परलोक को गमन
- चित्तचोर – चित्त को चोरने वाला
- ख्याति प्राप्त – ख्याति को प्राप्त
- दिनकर – दिन को करने वाला
- जितेन्द्रिय – इंद्रियोँ को जीतने वाला
- चक्रधर – चक्र को धारण करने वाला
- धरणीधर – धरणी (पृथ्वी) को धारण करने वाला
- गिरिधर – गिरि को धारण करने वाला
- हलधर – हल को धारण करने वाला
- मरणातुर – मरने को आतुर
- कालातीत – काल को अतीत (परे) करके
- वयप्राप्त – वय (उम्र) को प्राप्त
(ख) करण तत्पुरुष – इसमें करण कारक की विभक्ति ‘से’, ‘के’, ‘द्वारा’ का लोप हो जाता है।
- तुलसीकृत – तुलसी द्वारा कृत
- अकालपीड़ित – अकाल से पीड़ित
- श्रमसाध्य – श्रम से साध्य
- कष्टसाध्य – कष्ट से साध्य
- ईश्वरदत्त – ईश्वर द्वारा दिया गया
- रत्नजड़ित – रत्न से जड़ित
- हस्तलिखित – हस्त से लिखित
- अनुभव जन्य – अनुभव से जन्य
- रेखांकित – रेखा से अंकित
- गुरुदत्त – गुरु द्वारा दत्त
- सूरकृत – सूर द्वारा कृत
- दयार्द्र – दया से आर्द्र
- मुँहमाँगा – मुँह से माँगा
- मदमत्त – मद (नशे) से मत्त
- रोगातुर – रोग से आतुर
- भुखमरा – भूख से मरा हुआ
- कपड़छान – कपड़े से छाना हुआ
- स्वयंसिद्ध – स्वयं से सिद्ध
- शोकाकुल – शोक से आकुल
- मेघाच्छन्न – मेघ से आच्छन्न
- अश्रुपूर्ण – अश्रु से पूर्ण
- वचनबद्ध – वचन से बद्ध
- वाग्युद्ध – वाक् (वाणी) से युद्ध
- क्षुधातुर – क्षुधा से आतुर
- शल्यचिकित्सा – शल्य (चीर-फाड़) से चिकित्सा
- आँखोँदेखा – आँखोँ से देखा
(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष – इसमें संप्रदान कारक की विभक्ति ‘के लिए’ लुप्त हो जाती है।
- देशभक्ति – देश के लिए भक्ति
- गुरुदक्षिणा – गुरु के लिए दक्षिणा
- भूतबलि – भूत के लिए बलि
- प्रौढ़ शिक्षा – प्रौढ़ोँ के लिए शिक्षा
- यज्ञशाला – यज्ञ के लिए शाला
- शपथपत्र – शपथ के लिए पत्र
- स्नानागार – स्नान के लिए आगार
- कृष्णार्पण – कृष्ण के लिए अर्पण
- युद्धभूमि – युद्ध के लिए भूमि
- बलिपशु – बलि के लिए पशु
- पाठशाला – पाठ के लिए शाला
- रसोईघर – रसोई के लिए घर
- हथकड़ी – हाथ के लिए कड़ी
- विद्यालय – विद्या के लिए आलय
- विद्यामंदिर – विद्या के लिए मंदिर
- डाक गाड़ी – डाक के लिए गाड़ी
- सभाभवन – सभा के लिए भवन
- आवेदन पत्र – आवेदन के लिए पत्र
- हवन सामग्री – हवन के लिए सामग्री
- कारागृह – कैदियोँ के लिए गृह
- परीक्षा भवन – परीक्षा के लिए भवन
- सत्याग्रह – सत्य के लिए आग्रह
- छात्रावास – छात्रोँ के लिए आवास
- युववाणी – युवाओँ के लिए वाणी
- समाचार पत्र – समाचार के लिए पत्र
- वाचनालय – वाचन के लिए आलय
- चिकित्सालय – चिकित्सा के लिए आलय
- बंदीगृह – बंदी के लिए गृह
(घ) अपादान तत्पुरुष – इसमें अपादान कारक की विभक्ति ‘से’ लुप्त हो जाती है।
- रोगमुक्त – रोग से मुक्त
- लोकभय – लोक से भय
- राजद्रोह – राज से द्रोह
- जलरिक्त – जल से रिक्त
- नरकभय – नरक से भय
- देशनिष्कासन – देश से निष्कासन
- दोषमुक्त – दोष से मुक्त
- बंधनमुक्त – बंधन से मुक्त
- जातिभ्रष्ट – जाति से भ्रष्ट
- कर्तव्यच्युत – कर्तव्य से च्युत
- पदमुक्त – पद से मुक्त
- जन्मांध – जन्म से अंधा
- देशनिकाला – देश से निकाला
- कामचोर – काम से जी चुराने वाला
- जन्मरोगी – जन्म से रोगी
- भयभीत – भय से भीत
- पदच्युत – पद से च्युत
- धर्मविमुख – धर्म से विमुख
- पदाक्रान्त – पद से आक्रान्त
- कर्तव्यविमुख – कर्तव्य से विमुख
- पथभ्रष्ट – पथ से भ्रष्ट
- सेवामुक्त – सेवा से मुक्त
- गुण रहित – गुण से रहित
- बुद्धिहीन – बुद्धि से हीन
- धनहीन – धन से हीन
- भाग्यहीन – भाग्य से हीन
(ङ) सम्बन्ध तत्पुरुष – इसमें संबंध कारक की विभक्ति ‘का’, ‘के’, ‘की’ लुप्त हो जाती है।
- देवदास – देव का दास
- लखपति – लाखोँ का पति (मालिक)
- करोड़पति – करोड़ोँ का पति
- राष्ट्रपति – राष्ट्र का पति
- सूर्योदय – सूर्य का उदय
- राजपुत्र – राजा का पुत्र
- जगन्नाथ – जगत् का नाथ
- मंत्रिपरिषद् – मंत्रियोँ की परिषद्
- राजभाषा – राज्य की (शासन) भाषा
- राष्ट्रभाषा – राष्ट्र की भाषा
- जमीँदार – जमीन का दार (मालिक)
- भूकंप – भू का कम्पन
- रामचरित – राम का चरित
- दुःखसागर – दुःख का सागर
- राजप्रासाद – राजा का प्रासाद
- गंगाजल – गंगा का जल
- जीवनसाथी – जीवन का साथी
- देवमूर्ति – देव की मूर्ति
- सेनापति – सेना का पति
- प्रसंगानुकूल – प्रसंग के अनुकूल
- भारतवासी – भारत का वासी
- पराधीन – पर के अधीन
- स्वाधीन – स्व (स्वयं) के अधीन
- मधुमक्खी – मधु की मक्खी
- भारतरत्न – भारत का रत्न
- राजकुमार – राजा का कुमार
- राजकुमारी – राजा की कुमारी
- दशरथ सुत – दशरथ का सुत
- ग्रन्थावली – ग्रन्थोँ की अवली
- दीपावली – दीपोँ की अवली (कतार)
- गीतांजलि – गीतोँ की अंजलि
- कवितावली – कविता की अवली
- पदावली – पदोँ की अवली
- कर्माधीन – कर्म के अधीन
- लोकनायक – लोक का नायक
- रक्तदान – रक्त का दान
- सत्रावसान – सत्र का अवसान
- अश्वमेध – अश्व का मेध
- माखनचोर – माखन का चोर
- नन्दलाल – नन्द का लाल
- दीनानाथ – दीनोँ का नाथ
- दीनबन्धु – दीनोँ (गरीबोँ) का बन्धु
- कर्मयोग – कर्म का योग
- ग्रामवासी – ग्राम का वासी
- दयासागर – दया का सागर
- अक्षांश – अक्ष का अंश
- देशान्तर – देश का अन्तर
- तुलादान – तुला का दान
- कन्यादान – कन्या का दान
- गोदान – गौ (गाय) का दान
- ग्रामोत्थान – ग्राम का उत्थान
- वीर कन्या – वीर की कन्या
- पुत्रवधू – पुत्र की वधू
- धरतीपुत्र – धरती का पुत्र
- वनवासी – वन का वासी
- भूतबंगला – भूतोँ का बंगला
- राजसिंहासन – राजा का सिँहासन
(च) अधिकरण तत्पुरुष – इसमें अधिकरण कारक की विभक्ति ‘में’, ‘पर’ लुप्त हो जाती है।
- ग्रामवास – ग्राम मेँ वास
- आपबीती – आप पर बीती
- शोकमग्न – शोक मेँ मग्न
- जलमग्न – जल मेँ मग्न
- आत्मनिर्भर – आत्म पर निर्भर
- तीर्थाटन – तीर्थोँ मेँ अटन (भ्रमण)
- नरश्रेष्ठ – नरोँ मेँ श्रेष्ठ
- गृहप्रवेश – गृह मेँ प्रवेश
- घुड़सवार – घोड़े पर सवार
- वाक्पटु – वाक् मेँ पटु
- धर्मरत – धर्म मेँ रत
- धर्माँध – धर्म मेँ अंधा
- लोककेन्द्रित – लोक पर केन्द्रित
- काव्यनिपुण – काव्य मेँ निपुण
- रणवीर – रण मेँ वीर
- रणधीर – रण मेँ धीर
- रणजीत – रण मेँ जीतने वाला
- रणकौशल – रण मेँ कौशल
- आत्मविश्वास – आत्मा पर विश्वास
- वनवास – वन मेँ वास
- लोकप्रिय – लोक मेँ प्रिय
- नीतिनिपुण – नीति मेँ निपुण
- ध्यानमग्न – ध्यान मेँ मग्न
- सिरदर्द – सिर मेँ दर्द
- देशाटन – देश मेँ अटन
- कविपुंगव – कवियोँ मेँ पुंगव (श्रेष्ठ)
- पुरुषोत्तम – पुरुषोँ मेँ उत्तम
- रसगुल्ला – रस मेँ डूबा हुआ गुल्ला
- दहीबड़ा – दही मेँ डूबा हुआ बड़ा
- रेलगाड़ी – रेल (पटरी) पर चलने वाली गाड़ी
- मुनिश्रेष्ठ – मुनियोँ मेँ श्रेष्ठ
- नरोत्तम – नरोँ मेँ उत्तम
- वाग्वीर – वाक् मेँ वीर
- पर्वतारोहण – पर्वत पर आरोहण (चढ़ना)
- कर्मनिष्ठ – कर्म मेँ निष्ठ
- युधिष्ठिर – युद्ध मेँ स्थिर रहने वाला
- सर्वोत्तम – सर्व मेँ उत्तम
- कार्यकुशल – कार्य मेँ कुशल
- दानवीर – दान मेँ वीर
- कर्मवीर – कर्म मेँ वीर
- कविराज – कवियोँ मेँ राजा
- सत्तारुढ़ – सत्ता पर आरुढ़
- शरणागत – शरण मेँ आया हुआ
- गजारुढ़ – गज पर आरुढ़
2. लुप्त पद या मध्यम पद लोपी तत्पुरुष समास:
जब किसी विग्रह कार्य से समास बनाते समय प्रथम एवं अंतिम शब्द को तो रख लिया जाता है तथा बीच के अन्य पदों का लोप हो जाता है, वहां लुप्त पद या मध्यम पद लोपी तत्पुरुष समास माना जाता है।
- रेलगाड़ी – रेल पर चलने वाली गाड़ी
- बैलगाड़ी – बैल से चलने वाली गाड़ी
- डाकगाड़ी – डाक ढोने वाली गाड़ी
- मधुमक्खी – मधु एकत्र करने वाली मक्खी
- जलयान – जल पर चलने वाला यान
- वायुयान – वायु में उड़ने वाला यान
- वनमानुष – वन में रहने वाला मानुष
- दहीबड़ा – दही में डूबा हुआ बड़ा
- पकौड़ी – पकी हुई बड़ी
- रसगुल्ला – रस में डूबा हुआ गुल्ला
- गुड़धानी – गुड़ मिश्रित धानी
- घृतान्न – घृत (घी) मिश्रित अन्न
3. उपपद तत्पुरुष समास:
जब किसी पद में द्वितीय पद कोई स्वतंत्र/सार्थक शब्द ना होकर किसी प्रत्यय के रूप में लिखा जाता है तो वहां उपपद तत्पुरुष समास माना जाता है। ऐसे शब्दों का विग्रह करते समय उस प्रत्यय के अर्थ के अनुसार विग्रह कार्य किया जाता है।
- ज्ञानप्रद – ज्ञान प्रदान करने वाला/वाली
- कष्टप्रद – कष्ट प्रदान करने वाला/वाली
- सुखप्रद – सुख प्रदान करने वाला/वाली
- चर्मकार – चर्म का कार (कार्य) करने वाला/वाली
- जलद – जल देने वाला
- जलज – जल में जन्म लेने वाला
- पंकज – पंक (कीचड़) में जन्म लेने वाला
4. अलुक् तत्पुरुष समास:
जब किसी पद में पहला पद शुद्ध संस्कृत विभक्ति की तरह लिखा जाता है अर्थात समास करने पर पूर्वपद की विभक्ति का लोप नहीँ होता है, तो वहां अलुक् तत्पुरुष समास माना जाता है। जैसे—
- युधिष्ठिर—युद्धि (युद्ध मेँ) + स्थिर = ज्येष्ठ पाण्डव
- मनसिज—मनसि (मन मेँ) + ज (उत्पन्न) = कामदेव
- सरसिज – सरसि (तालाब में) + ज (उत्पन्न) = कमल
- खेचर—खे (आकाश) + चर (विचरने वाला) = पक्षी
5. नञ् तत्पुरुष समास– इस समास मेँ द्वितीय पद प्रधान होता है किन्तु प्रथम पद संस्कृत के नकारात्मक अर्थ को देने वाले ‘अ’ और ‘अन्’ उपसर्ग से युक्त होता है। इसमेँ निषेध अर्थ मेँ ‘न’ के स्थान पर यदि बाद मेँ व्यंजन वर्ण हो तो ‘अ’ तथा बाद मेँ स्वर हो तो ‘न’ के स्थान पर ‘अन्’ हो जाता है। जैसे –
- अनाथ – न (अ) नाथ
- अन्याय – न (अ) न्याय
- अनाचार – न (अन्) आचार
- अनादर – न (अन्) आदर
- अजन्मा – न जन्म लेने वाला
- अमर – न मरने वाला
- अडिग – न डिगने वाला
- अशोच्य – नहीँ है शोचनीय जो
- अनभिज्ञ – न अभिज्ञ
- अकर्म – बिना कर्म के
- अनादर – आदर से रहित
- अधर्म – धर्म से रहित
- अनदेखा – न देखा हुआ
- अचल – न चल
- अछूत – न छूत
- अनिच्छुक – न इच्छुक
- अनाश्रित – न आश्रित
- अगोचर – न गोचर
- अनावृत – न आवृत
- नालायक – नहीँ है लायक जो
- अनन्त – न अन्त
- अनादि – न आदि
- असंभव – न संभव
- अभाव – न भाव
- अलौकिक – न लौकिक
- अनपढ़ – न पढ़ा हुआ
- निर्विवाद – बिना विवाद के
द्वन्द्व समास
सूत्र – “उभय पदार्थ प्रधानो द्वन्द्व” अर्थात जिस समस्त पद मेँ दोनोँ अथवा सभी पद प्रधान होँ तथा उनके बीच मेँ समुच्चयबोधक–‘और, या, अथवा, आदि’ का लोप हो गया हो, तो वहाँ द्वन्द्व समास होता है। जैसे –
- अन्नजल – अन्न और जल
- देश–विदेश – देश और विदेश
- राम–लक्ष्मण – राम और लक्ष्मण
- रात–दिन – रात और दिन
- खट्टामीठा – खट्टा और मीठा
- जला–भुना – जला और भुना
- माता–पिता – माता और पिता
- दूधरोटी – दूध और रोटी
- पढ़ा–लिखा – पढ़ा और लिखा
- हरि–हर – हरि और हर
- राधाकृष्ण – राधा और कृष्ण
- राधेश्याम – राधे और श्याम
- सीताराम – सीता और राम
- गौरीशंकर – गौरी और शंकर
- अड़सठ – आठ और साठ
- पच्चीस – पाँच और बीस
- छात्र–छात्राएँ – छात्र और छात्राएँ
- कन्द–मूल–फल – कन्द और मूल और फल
- गुरु–शिष्य – गुरु और शिष्य
- राग–द्वेष – राग या द्वेष
- एक–दो – एक या दो
- दस–बारह – दस या बारह
- लाख–दो–लाख – लाख या दो लाख
- पल–दो–पल – पल या दो पल
- आर–पार – आर या पार
- पाप–पुण्य – पाप या पुण्य
- उल्टा–सीधा – उल्टा या सीधा
- कर्तव्याकर्तव्य – कर्तव्य अथवा अकर्तव्य
- सुख–दुख – सुख अथवा दुख
- जीवन–मरण – जीवन अथवा मरण
- धर्माधर्म – धर्म अथवा अधर्म
- लाभ–हानि – लाभ अथवा हानि
- यश–अपयश – यश अथवा अपयश
- हाथ–पाँव – हाथ, पाँव आदि
- नोन–तेल – नोन, तेल आदि
- रुपया–पैसा – रुपया, पैसा आदि
- आहार–निद्रा – आहार, निद्रा आदि
- जलवायु – जल, वायु आदि
- कपड़े–लत्ते – कपड़े, लत्ते आदि
- बहू–बेटी – बहू, बेटी आदि
- पाला–पोसा – पाला, पोसा आदि
- साग–पात – साग, पात आदि
- काम–काज – काम, काज आदि
- खेत–खलिहान – खेत, खलिहान आदि
- लूट–मार – लूट, मार आदि
- पेड़–पौधे – पेड़, पौधे आदि
- भला–बुरा – भला, बुरा आदि
- दाल–रोटी – दाल, रोटी आदि
- ऊँच–नीच – ऊँच, नीच आदि
- धन–दौलत – धन, दौलत आदि
- आगा–पीछा – आगा, पीछा आदि
- चाय–पानी – चाय, पानी आदि
- भूल–चूक – भूल, चूक आदि
- फल–फूल – फल, फूल आदि
- खरी–खोटी – खरी, खोटी आदि
द्वन्द्व समास के तीन भेद होते हैं:
(क) इत्तरेत्तर द्वन्द्व समास – जिस समास में दोनों पद अलग अलग रहकर भी अपनी प्रधानता को प्रकट करते हैं, वहां इत्तरेत्तर द्वन्द्व समास माना जाता है। ऐसे पदों का विग्रह करते समय दोनों पदों के मध्य “और” शब्द लिख दिया जाता है।
- बाप-दादा – बाप और दादा
- माता-पिता – माता और पिता
- पति-पत्नी – पति और पत्नी
- अहोरात – अहन् और रात्रि
- सुरासुर – सुर और असुर
- देवासुर – देव और असुर
- कृष्णार्जुन – कृष्ण और अर्जुन
- हरिहर – हरि और हर
- हताहत – हत और आहत
(ख) समाहार द्वन्द्व समास – द्वन्द्व समास के जिस पद में दोनों पद अलग-अलग होकर भी एक समूह की स्थिति को प्रकट करते हैं तो वहां समाहार द्वन्द्व समास माना जाता है। इस समास में मुख्यतः निम्न स्थितियां प्राप्त होती है:
स्थिति 1 – एक से दस तक की संख्याओं तथा दस से भाज्य संख्याओं को छोड़कर अन्य सभी संख्याओं में समाहार द्वन्द्व समास माना जाता है।
- पच्चीस – पांच और बीस
- अड़तीस – आठ और तीस
- तैतालीस – तीन और चालीस
स्थिति 2 – आम बोलचाल की भाषा में हम किसी सार्थक शब्द के साथ किसी निरर्थक शब्द का प्रयोग भी कर देते हैं, ऐसे पदों में भी समाहार द्वन्द्व समास माना जाता है। इनका विग्रह करते समय निरर्थक शब्द को हटाकर ‘आदि’ शब्द लिख दिया जाता है।
- चाय-वाय – चाय आदि
- दूध-वूध – दूध आदि
स्थिति 3 – कुछ शब्द ऐसे भी होते हैं जहां दोनों ही सार्थक शब्द होते हैं तथा वे दोनों मिलकर किसी एक समूह का बुध कराते हैं तो वहां पर भी समाहार द्वन्द्व समास होता है। इनका विग्रह करते समय दोनों शब्दों को लिखकर आगे ‘आदि’ शब्द लिख दिया जाता है।
- दाल-रोटी – दाल,रोटी आदि
- फल-फूल – फल,फूल आदि
(ग) विकल्पक द्वन्द्व या एक शेष द्वन्द्व समास – जब किसी सामासिक पद में प्रयुक्त दोनों शब्दों में से किसी एक शब्द को ग्रहण करने का विकल्प प्राप्त होता है तो वहां विकल्पक द्वन्द्व समास माना जाता है। ऐसे पदों के विग्रह कार्य में दोनों पदों के बीच में ‘या’ शब्द लिख दिया जाता है।
- चार-पांच – चार या पांच
- सात-आठ – सात या आठ
- लाभ-हानि – लाभ या हानि
- सुख-दुःख – सुख या दुःख
जब किसी विग्रह कार्य से समास बनाते समय केवल एक ही शब्द शेष रखा जाता है तो वहां उसे एक शेष द्वन्द्व समास कह दिया जाता है।
- बच्चे – बच्चा और बच्ची
- छात्र – छात्र और छात्र
बहुव्रीहि समास
सूत्र – “अन्य पदार्थ प्रधानो बहुब्रीहि” अर्थात जिस समस्त पद मेँ कोई भी पद प्रधान नहीँ हो, अर्थात् समास किये गये दोनोँ पदोँ का शाब्दिक अर्थ छोड़कर तीसरा अर्थ या अन्य अर्थ लिया जावे, उसे बहुव्रीहि समास कहते हैँ। इस समास के पदों का विग्रह करते समय प्रायः जिसका/जिसके/जिसकी/जो इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
- आशुतोष – वह जो आशु (शीघ्र) तुष्ट हो जाते हैँ—शिव
- पंचानन – पाँच है आनन (मुँह) जिसके वह—शिव
- वाग्देवी – वह जो वाक् (भाषा) की देवी है—सरस्वती
- वज्रपाणि – वह जिसके पाणि (हाथ) मेँ वज्र है—इन्द्र
- शूलपाणि – शूल (त्रिशूल) है पाणि मेँ जिसके—शिव
- चतुर्भुज – चार हैँ भुजाएँ जिसकी—विष्णु
- लम्बोदर – लम्बा है उदर जिसका—गणेश
- चन्द्रचूड़ – चन्द्रमा है चूड़ (ललाट) पर जिसके—शिव
- पुण्डरीकाक्ष – पुण्डरीक (कमल) के समान अक्षि (आँखेँ) हैँ जिसकी—विष्णु
- रघुनन्दन – रघु का नन्दन है जो—राम
- सूतपुत्र – सूत (सारथी) का पुत्र है जो—कर्ण
- चन्द्रमौलि – चन्द्र है मौलि (मस्तक) पर जिसके—शिव
- चतुरानन – चार हैँ आनन (मुँह) जिसके—ब्रह्मा
- अंजनिनन्दन – अंजनि का नन्दन (पुत्र) है जो—हनुमान
- मकरध्वज – जिसके मकर का ध्वज है वह—कामदेव
- रतिकांत – वह जो रति का कांत (पति) है—कामदेव
- षडानन – वह जिसके छह आनन हैँ—कार्तिकेय
- सप्तऋषि – वे जो सात ऋषि हैँ—सात ऋषि विशेष जिनके नाम निश्चित हैँ
- त्रिवेणी – तीन वेणियोँ (नदियोँ) का संगमस्थल—प्रयाग
- पंचवटी – पाँच वटवृक्षोँ के समूह वाला स्थान—मध्य प्रदेश मेँ स्थान विशेष
- रामायण – राम का अयन (आश्रय)—वाल्मीकि रचित काव्य
- पंचामृत – पाँच प्रकार का अमृत—दूध, दही, शक्कर, गोबर, गोमूत्र का रसायन विशेष
- षड्दर्शन – षट् दर्शनोँ का समूह—छह विशिष्ट भारतीय दर्शन–न्याय, सांख्य, द्वैत आदि
- चारपाई – चार पाए होँ जिसके—खाट
- विषधर – विष को धारण करने वाला—साँप
- अष्टाध्यायी – आठ अध्यायोँ वाला—पाणिनि कृत व्याकरण
- चक्रधर – चक्र धारण करने वाला—श्रीकृष्ण
- पतझड़ – वह ऋतु जिसमेँ पत्ते झड़ते हैँ—बसंत
- दीर्घबाहु – दीर्घ हैँ बाहु जिसके—विष्णु
- पतिव्रता – एक पति का व्रत लेने वाली—वह स्त्री
- तिरंगा – तीन रंगो वाला—राष्ट्रध्वज
- अंशुमाली – अंशु है माला जिसकी—सूर्य
- महात्मा – महान् है आत्मा जिसकी—ऋषि
- वक्रतुण्ड – वक्र है तुण्ड जिसकी—गणेश
- दिगम्बर – दिशाएँ ही हैँ वस्त्र जिसके—शिव
- घनश्याम – जो घन के समान श्याम है—कृष्ण
- प्रफुल्लकमल – खिले हैँ कमल जिसमेँ—वह तालाब
- महावीर – महान् है जो वीर—हनुमान व भगवान महावीर
- लोकनायक – लोक का नायक है जो—जयप्रकाश नारायण
- महाकाव्य – महान् है जो काव्य—रामायण, महाभारत आदि
- अनंग – वह जो बिना अंग का है—कामदेव
- एकदन्त – एक दंत है जिसके—गणेश
- नीलकण्ठ – नीला है कण्ठ जिनका—शिव
- पीताम्बर – पीत (पीले) हैँ वस्त्र जिसके—विष्णु
- कपीश्वर – कपि (वानरोँ) का ईश्वर है जो—हनुमान
- वीणापाणि – वीणा है जिसके पाणि मेँ—सरस्वती
- देवराज – देवोँ का राजा है जो—इन्द्र
- हलधर – हल को धारण करने वाला
- शशिधर – शशि को धारण करने वाला—शिव
- दशमुख – दस हैँ मुख जिसके—रावण
- वज्रांग – वज्र के समान अंग हैँ जिसके—हनुमान
- पंकज – पंक् (कीचड़) मेँ जन्म लेता है जो—कमल
- निशाचर – निशा (रात्रि) मेँ चर (विचरण) करता है जो—राक्षस
- चक्रपाणि – चक्र है जिसके पाणि मेँ – विष्णु
- पंचानन – पाँच हैँ आनन जिसके—शिव
- पद्मासना – पद्म (कमल) है आसन जिसका—लक्ष्मी
- मनोज – मन से जन्म लेने वाला—कामदेव
- गिरिधर – गिरि को धारण करने वाला—श्रीकृष्ण
- वसुंधरा – वसु (धन, रत्न) को धारण करती है जो—धरती
- त्रिलोचन – तीन हैँ लोचन (आँखेँ) जिसके—शिव
- मीनकेतु – मीन के समान केतु हैँ जिसके—विष्णु
- नाभिज – नाभि से जन्मा (उत्पन्न) है जो—ब्रह्मा
- वीणावादिनी – वीणा बजाती है जो—सरस्वती
- नगराज – नग (पहाड़ोँ) का राजा है जो—हिमालय
- वज्रदन्ती – वज्र के समान दाँत हैँ जिसके—हाथी
- मारुतिनंदन – मारुति (पवन) का नंदन है जो—हनुमान
- शचिपति – शचि का पति है जो—इन्द्र
- गजवदन – गज जैसा वदन (मुख) है जिसका—गणेश
- युधिष्ठिर – जो युद्ध मेँ स्थिर रहता है—धर्मराज (ज्येष्ठ पाण्डव)
- अजानुबाहु – जानुओँ (घुटनोँ) तक बाहुएँ हैँ जिसकी वह—विष्णु
- अजातशत्रु – नहीँ पैदा हुआ शत्रु जिसका—कोई व्यक्ति विशेष
- ब्रह्मपुत्र – ब्रह्मा का पुत्र है जो—नारद
- भूतनाथ – भूतोँ का नाथ है जो—शिव
- षटपद – छह पैर हैँ जिसके—भौँरा
- लंकेश – लंका का ईश (स्वामी) है जो—रावण
- सिन्धुजा – सिन्धु मेँ जन्मी है जो—लक्ष्मी
- दिनकर – दिन को करता है जो—सूर्य
- वसन्तदूत – वसन्त का दूत है जो—कोयल
- गजानन – गज (हाथी) जैसा मुख है जिसका—गणेश
कर्मधारय समास
जिस समास मेँ उत्तरपद प्रधान हो तथा पहला पद विशेषण अथवा उपमान (जिसके द्वारा उपमा दी जाए) हो और दूसरा पद विशेष्य अथवा उपमेय (जिसके द्वारा तुलना की जाए) हो, उसे कर्मधारय समास कहते हैँ।
इस समास के दो रूप हैँ–
(i) विशेषता वाचक कर्मधारय– इसमेँ प्रथम पद द्वितीय पद की विशेषता बताता है। जैसे –
- महाराज – महान् है जो राजा
- महापुरुष – महान् है जो पुरुष
- नीलाकाश – नीला है जो आकाश
- महाकवि – महान् है जो कवि
- नीलोत्पल – नील है जो उत्पल (कमल)
- महापुरुष – महान् है जो पुरुष
- महर्षि – महान् है जो ऋषि
- महासंयोग – महान् है जो संयोग
- शुभागमन – शुभ है जो आगमन
- सज्जन – सत् है जो जन
- महात्मा – महान् है जो आत्मा
- सद्बुद्धि – सत् है जो बुद्धि
- मंदबुद्धि – मंद है जिसकी बुद्धि
- मंदाग्नि – मंद है जो अग्नि
- बहुमूल्य – बहुत है जिसका मूल्य
- पूर्णाँक – पूर्ण है जो अंक
- भ्रष्टाचार – भ्रष्ट है जो आचार
- शिष्टाचार – शिष्ट है जो आचार
- अरुणाचल – अरुण है जो अचल
- शीतोष्ण – जो शीत है जो उष्ण है
- देवर्षि – देव है जो ऋषि है
- परमात्मा – परम है जो आत्मा
- अंधविश्वास – अंधा है जो विश्वास
- कृतार्थ – कृत (पूर्ण) हो गया है जिसका अर्थ (उद्देश्य)
- दृढ़प्रतिज्ञ – दृढ़ है जिसकी प्रतिज्ञा
- राजर्षि – राजा है जो ऋषि है
- अंधकूप – अंधा है जो कूप
- कृष्ण सर्प – कृष्ण (काला) है जो सर्प
- नीलगाय – नीली है जो गाय
- नीलकमल – नीला है जो कमल
- महाजन – महान् है जो जन
- महादेव – महान् है जो देव
- श्वेताम्बर – श्वेत है जो अम्बर
- पीताम्बर – पीत है जो अम्बर
- अधपका – आधा है जो पका
- अधखिला – आधा है जो खिला
- लाल टोपी – लाल है जो टोपी
- सद्धर्म – सत् है जो धर्म
- कालीमिर्च – काली है जो मिर्च
- महाविद्यालय – महान् है जो विद्यालय
- परमानन्द – परम है जो आनन्द
- दुरात्मा – दुर् (बुरी) है जो आत्मा
- भलमानुष – भला है जो मनुष्य
- महासागर – महान् है जो सागर
- महाकाल – महान् है जो काल
- महाद्वीप – महान् है जो द्वीप
- कापुरुष – कायर है जो पुरुष
- बड़भागी – बड़ा है भाग्य जिसका
- कलमुँहा – काला है मुँह जिसका
- नकटा – नाक कटा है जो
- जवाँ मर्द – जवान है जो मर्द
- दीर्घायु – दीर्घ है जिसकी आयु
- अधमरा – आधा मरा हुआ
- निर्विवाद – विवाद से निवृत्त
- महाप्रज्ञ – महान् है जिसकी प्रज्ञा
- नलकूप – नल से बना है जो कूप
- परकटा – पर हैँ कटे जिसके
- दुमकटा – दुम है कटी जिसकी
- प्राणप्रिय – प्रिय है जो प्राणोँ को
- अल्पसंख्यक – अल्प हैँ जो संख्या मेँ
- पुच्छलतारा – पूँछ है जिस तारे की
- नवागन्तुक – नया है जो आगन्तुक
- वक्रतुण्ड – वक्र (टेढ़ी) है जो तुण्ड
- चौसिँगा – चार हैँ जिसके सीँग
- अधजला – आधा है जो जला
- अतिवृष्टि – अति है जो वृष्टि
- महारानी – महान् है जो रानी
- नराधम – नर है जो अधम (पापी)
- नवदम्पत्ति – नया है जो दम्पत्ति
(ii) उपमान वाचक कर्मधारय– इसमेँ एक पद उपमान तथा द्वितीय पद उपमेय होता है। जैसे –
- बाहुदण्ड – बाहु है दण्ड समान
- चंद्रवदन – चंद्रमा के समान वदन (मुख)
- कमलनयन – कमल के समान नयन
- मुखारविँद – अरविँद रूपी मुख
- मृगनयनी – मृग के समान नयनोँ वाली
- मीनाक्षी – मीन के समान आँखोँ वाली
- चन्द्रमुखी – चन्द्रमा के समान मुख वाली
- चन्द्रमुख – चन्द्र के समान मुख
- नरसिँह – सिँह रूपी नर
- चरणकमल – कमल रूपी चरण
- क्रोधाग्नि – अग्नि के समान क्रोध
- कुसुमकोमल – कुसुम के समान कोमल
- ग्रन्थरत्न – रत्न रूपी ग्रन्थ
- पाषाण हृदय – पाषाण के समान हृदय
- देहलता – देह रूपी लता
- कनकलता – कनक के समान लता
- करकमल – कमल रूपी कर
- वचनामृत – अमृत रूपी वचन
- अमृतवाणी – अमृत रूपी वाणी
- विद्याधन – विद्या रूपी धन
- वज्रदेह – वज्र के समान देह
- संसार सागर – संसार रूपी सागर
द्विगु समास
जिस समस्त पद मेँ पूर्व पद संख्यावाचक हो और पूरा पद समाहार (समूह) या समुदाय का बोध कराए उसे द्विगु समास कहते हैँ। संस्कृत व्याकरण के अनुसार इसे कर्मधारय का ही एक भेद माना जाता है। इसमेँ पूर्व पद संख्यावाचक विशेषण तथा उत्तर पद संज्ञा होता है। इस समास के पदों का विग्रह कार्य करते समय अंत में समूह या समाहार शब्द लिखा जाता है। स्वयं ‘द्विगु’ मेँ भी द्विगु समास है। द्विगु समास दो प्रकार के होते हैं- समाहार द्विगु तथा उपपद प्रधान द्विगु समास। जैसे –
- त्रिवेणी – तीन वेणियोँ का संगम
- त्रिवेदी – तीन वेदोँ का ज्ञाता
- द्विवेदी – दो वेदोँ का ज्ञाता
- चतुर्वेदी – चार वेदोँ का ज्ञाता
- तिबारा – तीन हैँ जिसके द्वार
- एकलिंग – एक ही लिँग
- दोराहा – दो राहोँ का समाहार
- तिराहा – तीन राहोँ का समाहार
- चौराहा – चार राहोँ का समाहार
- पंचतत्त्व – पाँच तत्त्वोँ का समूह
- शताब्दी – शत (सौ) अब्दोँ (वर्षोँ) का समूह
- पंचवटी – पाँच वटोँ (वृक्षोँ) का समूह
- नवरत्न – नौ रत्नोँ का समाहार
- त्रिफला – तीन फलोँ का समाहार
- सप्ताह – सात दिनोँ का समूह
- चवन्नी – चार आनोँ का समाहार
- दुनाली – दो नालोँ वाली
- चौपाया – चार पायोँ (पैरोँ) वाला
- षट्पद – छः पैरोँ वाला
- चौमासा – चार मासोँ का समाहार
- इकतीस – एक व तीस का समूह
- सप्तसिन्धु – सात सिन्धुओँ का समूह
- त्रिकाल – तीन कालोँ का समाहार
- अष्टधातु – आठ धातुओँ का समूह
- अठवारा – आठवेँ दिन को लगने वाला बाजार
- पंचामृत – पाँच अमृतोँ का समाहार
- त्रिलोकी – तीन लोकोँ का
- सतसई – सात सई (सौ) (पदोँ) का समूह
- एकांकी – एक अंक है जिसका
- एकतरफा – एक है जो तरफ
- इकलौता – एक है जो
- चतुर्वर्ग – चार हैँ जो वर्ग
- चतुर्भुज – चार भुजाओँ वाली आकृति
- त्रिभुज – तीन भुजाओँ वाली आकृति
- पन्सेरी – पाँच सेर वाला बाट
- द्विगु – दो गायोँ का समाहार
- चौपड़ – चार फड़ोँ का समूह
- षट्कोण – छः कोण वाली बंद आकृति
- दुपहिया – दो पहियोँ वाला
- त्रिमूर्ति – तीन मूर्तियोँ का समूह
- दशाब्दी – दस वर्षोँ का समूह
- पंचतंत्र – पाँच तंत्रोँ का समूह
- नवरात्र – नौ रातोँ का समूह
- सप्तर्षि – सात ऋषियोँ का समूह
- त्रिभुवन – तीन भुवनोँ का समाहार
- त्रिलोक – तीन लोकोँ का समाहार
- त्रिशूल – तीन शूलोँ का समाहार
समास व संधि में समानता और असमानता
असमानता –
- संधि मेँ दो ध्वनियोँ या वर्णोँ का योग है जबकि समास मेँ दो शब्दोँ या पदोँ का मेल होता है।
- संधि मेँ ध्वनी विकार आवश्यक है जबकि समास मेँ ध्वनि विकार तभी होता है जब सामासिक पद मेँ संधि की स्थिति हो अन्यथा नहीँ।
समानता –
- दोनोँ ही नवीन शब्द–सृजन मेँ सहायक हैँ।
- दोनोँ ही शब्दोँ को संक्षिप्त करने मेँ सहायक हैँ।
- दोनोँ ही कम शब्दोँ मेँ अधिक भाव प्रकट करने की ‘समास–शैली–निर्माण’ मेँ सहायक हैँ।
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