सहदेव की कुल चार पत्नियां थीं: द्रौपदी, विजया, भानुमति और जरासंध की कन्या। द्रौपदी से श्रुतकर्मा, विजया से सुहोत्र पुत्र की प्राप्ति हुई। इसके अलावा दो पुत्र और थे जिसमें से एक का नाम सोमक था। सहदेव के नाम से तीन ग्रंथ प्राप्त होते हैं- व्याधिसंधविमर्दन, अग्निस्त्रोत, शकुन परीक्षा।
कई प्राचीन ग्रंथों में ये वर्णन है कि जब पांडवों के पिता महाराज पाण्डु श्राप के कारण मृत्यु को प्राप्त होने वाले थे तो उन्होंने कुंती, माद्री और अपने पांचों पुत्रों को बुला कर कहा – “पुत्रों! मेरा अंत समय अब आ पहुँचा है किन्तु मुझे इस बात का दुःख है कि मैं अपना संचित ज्ञान तुममे से किसी को भी ना दे सका। मेरी मृत्यु के पश्चात ये सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाएगा। मेरे पास अब अधिक समय नहीं बचा है इसीलिए तुम में से कोई मेरे मस्तिष्क को भक्षण कर लो ताकि मेरा सारा ज्ञान तुम्हे मिल जाये।” पांडव वैसे ही अपने पिता की स्थित देख कर शोक में थे। उसपर इस प्रकार का कार्य करना है, ये सोच कर ही पाँचों काँप गए। किसी को ये साहस ना हुआ कि वो अपने मरते हुए पिता का मष्तिष्क खा सकें। किसी भी पुत्र को अपनी आज्ञा पूर्ण ना करते देख पाण्डु बड़े दुखी हुए और गहरी निःस्वास लेते हुए अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे।
अपने पिता को उनके अंत समय में इस प्रकार दुखी देख कर अंततः सहदेव इस भीषण कृत्य को करने के लिए आगे आये। उन्होंने पाण्डु के सर के तीन हिस्से किये। पहला हिस्सा खाते ही सहदेव को भूतकाल में हुई सारी घटनाओं का ज्ञान हो गया। दूसरा हिस्सा खाते ही उन्हें वर्तमान और तीसरा हिस्सा खाकर उन्हें भविष्य की सारी घटनाओं का ज्ञान हो गया। इस प्रकार अपने पिता के आशीर्वाद से सहदेव त्रिकालदर्शी बन गए। महाभारत युद्ध के बारे में भी वे जानते थे परन्तु श्री कृष्ण को दिए गए वचनानुसार वो किसी को भी इस बारे में बताने में असमर्थ थे।
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