द्वारपरयुग के महाभारत की कहानी तो हम सभी जानते हैं, एक ऐसा युद्ध जिसमें द्वापरयुग के सभी महान योद्धाओं ने प्रतिभाग किया, एक ऐसा युद्ध जिसमें श्री नारायण द्वारा कर्म ज्ञान रणभूमि में दिया गया, एक ऐसा युद्ध जिसमें दोनों ही सेनाओं में परम पराक्रमी, शूरवीर और महान योद्धा थे। साथ ही साथ एक ऐसा युद्ध जिसमें लड़ने वाली दोनों ही सेनाएं एक ही वंश की थी। महाभारत के योद्धाओं के बारे हम सभी जानते हैं और महाभारत के युद्ध एवं उससे पहले की सभी कथाओं से हम पूर्णतया अवगत हैं।आइये आज जानते हैं कैसे यदुवंशियों का विनाश हुआ और कहाँ पांडवों ने अपने अस्त्र छुपाये थे:
ये बात है उस समय की जब महाभारत के युद्ध को समाप्त हुए पूरे छत्तीस वर्ष बीत चुके थे। आज बात करते हैं आज से लगभग 5100 साल पहले जब उस विनाश का आगमन हो रहा था जिसका श्राप भगवान् श्री कृष्णा को माता गांधारी ने कौरव कुल समाप्त होने पर दिया था। जिसके फलस्वरूप भगवान् श्री कृष्ण की द्वारिका नगरी डूबने वाली थी। द्वारिका नगरी में पाप इतना अधिक बढ़ गया था की रोज़ आंधी तूफ़ान उस नगरी को घेरे रखता था, मनुष्यों से ज़्यादा वहां चूहे सडकों पर दिखाई देते थे। माता गांधारी से कुल विनाश का श्राप मिलने के बाद, श्री कृष्णा एवं जामवती के पुत्र साम ने भी ऋषियों का उपहास कर उनसे अपने कुल विनाश का एक और श्राप अपने ऊपर ले लिया था।
श्री कृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी द्वारका महल से दूर समुद्र के पास आकर रहने लगे थे। द्वारिका नगरी में जितने भी राजवंशी , यदुवंशी एवं अन्य लोग थे श्राप के प्रभाव से वे अभी लोग आपस में लड़कर मरने लगे। अंधकवंशियों द्वारा श्री कृष्णा के पुत्र सात्विक एवं एक अन्य पुत्र की हत्या कर दी गयी, जिससे क्रोधित होकर श्री कृष्णा ने एक घास का छोटा सा तिनका अपने हाथ में लिया।घास का वो तिनका श्री कृष्णा के हाथ में आते ही एक कठोर वज्र मूसल में बदल गया, और श्री कृष्णा उसी वज्र से सभी का वध करने करने लगे। ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि ऋषि मुनियों ने साम को मूसल द्वारा ही उसके वंश का विनाश होने का श्राप दिया था। मूसल के एक ही प्रहार से प्राण निकल जाते थे, और इस प्रकार सम्पूर्ण यदुवंश का विनाश हो गया।
अंत में केवल श्री कृष्णा के सारथि यादुकी शेष बचे। बलराम को उसी स्थान पर रुकने का आदेश देकर उन्होंने अपने सारथि को हस्तिनापुर जाकर अर्जुन को लाने का आदेश दिया और स्वयं अपने महल लौट आये। वहां उन्होंने अपने पिता वासुदेव से सभी स्त्रियों की रक्षा तब तक करने को कहा जब तक अर्जुन नहीं आ जाते और वासुदेव को युद्ध का पूर्ण वृतांत सुनाया। सभी स्त्रियों का विलाप चरम सीमा पर था, वह सभी को सांत्वना देकर श्री कृष्णा पुनः युद्ध भूमि की ओर चल पड़े। वापिस जाने पर श्री कृष्णा ने देखा की बलराम एक समाधी में लीन हैं और देखते ही देखते बलराम के मुख से एक सर्प निकल कर समुद्र में समा गया। उस सर्प के हज़ारों मस्तक थे, यह बलराम द्वारा अपनी देह को त्यागे जाने का सन्देश था।
बलराम द्वारा देह त्यागने के बाद श्री कृष्णा वही अपने मन में विचार करने लगे। भगवान् श्री कृष्णा भी अपनी देह को त्यागने का विचार कर वहीँ एक स्थान देखकर लेट गए। जब अर्जुन को द्वारिका के लिए गए कुछ दिन बीत गए तो धर्मराज युधिष्ठिर को कुछ चिंता होने लगी, उन्होंने कुछ अशुभ होने की आशंका होने लगी। अत्यधिक चिंतित अवस्था में वे भीम से पूछ बैठे की अर्जुन को वापिस आने में इतनी देरी क्यों हो रही है? उनके इतना पूछते ही सूर्य का प्रकाश मंद होने लगा, भूकंप आने लगा, जानवर अपनी अवस्था के विपरीत कार्य कर रहे थे। धरती में होने वाली भिन्न भिन्न प्रकार की अपशकुनी घटनाओं को देख युधिष्ठिर को ऐसा प्रतीत होने लगा मानों श्री कृष्णा ने धरती को त्याग दिया हो। उसी समय अर्जुन क्षीण अवस्था में युधिष्ठिर के पास आकर उनके पैरों में गिर गए। अर्जुन के नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी, उन्होंने धर्मराज को श्री कृष्णा द्वारा स्वधाम लौटने की बात बताई साथ ही यह भी बताया कि अर्जुन की सारी शक्तियां भी उन्हीं के साथ चली गयी।
द्वारिका में जितनी भी स्त्रियां एवं यदुवंशी बचे थे उन्हें साथ लेकर वे वापिस आ रहे थे परन्तु रास्ते में कुछ भीलों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें निहत्था कर दिया। जिस अर्जुन ने सारी उम्र कभी हार का सामना नहीं किया आज कुछ भीलों ने उन्हें परास्त कर निहत्था कर दिया और उनके साथ के सभी लोगों को अपने साथ ले गए। श्री कृष्णा द्वारा देह त्याग एवं उनके कुल के विनाश की बात के बाद युधिष्ठिर ने अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। युधिष्ठिर ने अभिमन्यु के पराक्रमी पुत्र परीक्षित का अभिषेक कर स्वर्गारोहण के लिए जाने का निश्चय किया। उससे पहले सभी भारत की यात्रा पर निकले थे, मार्ग में उन्हें एक नदी के पास अग्नि देव ने दर्शन दिए जहाँ पर अग्नि देव ने अर्जुन से उनका गांडीव लिया था, परन्तु बाकी सभी अस्त्र अभी भी पांडवों के पास थे। मार्ग में आगे बढ़ते बढ़ते वे चौद्वार पहुंचे। माना जाता है इसी स्थान पर पांडवों ने अपने शस्त्र छुपाये थे। चौद्वार आज के समय में उड़ीसा में है। अपने अज्ञातवास के समय भी सभी पांडव यहीं थे। केरला में भी पाँचों पांडवों के नाम से पांच मंदिर विख्यात हैं, कहते हैं इन केरला में अनेकों मदिरों का निर्माण पांडवों ने किया था।
ऐसा माना जाता है की पांचो पांडवों द्वारा शस्त्रों को उसी प्रकार चौद्वार में छुपाया गया है जैसे उन्होंने अज्ञातवास के समय छुपाए थे। और यही कारण है की आज तक किसी को भी पांडवों के अस्त्र प्राप्त नहीं हुए। स्वर्गारोहण से पहले पांडवों ने समुद्र में डूबी द्वारिका नगरी के भी दर्शन किये थे, जिसे देख उनका मन विचलित हो उठा।
कुछ कथाओ के अनुसार ऐसा भी माना जाता है की पांडवों में अपने अस्त्र गांधार (वर्तमान अफगानिस्तान) में एक गुफा में छुपाये थे। पांडवों ने अपने अस्त्र कहाँ छुपाये इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो नहीं मिलता परन्तु इन्हीं दो स्थानों पर उनके अस्त्र छुपाने की कथा प्रचलित है।
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