गौतम बुद्ध का जीवन परिचय, जयंती | Gautam Buddha Biography in Hindi, Jayanti

गौतम बुद्ध एक महान आध्यात्मिक गुरु थे जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को शान्ति, भाईचारे व करुणा का सन्देश दिया और उनके द्वारा दिए गए उपदेशों ने मनुष्य के जीवन यापन के लिए जड़ी बूटी का काम किया। भगवान गौतम बुद्ध के विचारों पर चलते हुए व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

उन्होंने पूरी दुनिया को करुणा और सहिष्णुता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। गौतम बुद्ध को जो ज्ञान की प्राप्ति हुई, वह ज्ञान का प्रकाश उन्होंने पूरी दुनिया में फैलाया। सैकड़ों साल पहले कहे गए उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं।

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गौतम बुद्ध का जीवन परिचय संक्षिप्त में (Gautam Buddha Biography in Hindi)

gautam buddha
पूरा नाम:सिद्धार्थ गौतम बुद्ध
जन्म:563 ईसा पूर्व, लुम्बिनी
मृत्यु:463 ईसा पूर्व, कुशीनगर
पिता का नाम:शुद्धोधन
माता का नाम:महामाया
शिक्षा:राजकाज और युद्ध – विद्या
विवाह:यशोधरा के साथ
धर्म:जन्म से हिन्दू, बौद्ध धर्म के प्रवर्तक

गौतम बुद्ध का प्रारंभिक जीवन (Gautam Buddha Early Life)

गौतम बुद्ध का पूरा नाम सिद्धार्थ गौतम बुद्ध था। गौतम बुद्ध का जन्म 483 और 563 ईस्वी पूर्व के बीच कपिलवस्तु के पास लुंबिनी, नेपाल में हुआ था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी को अपने पीहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और उन्होने एक बालक को जन्म दिया था। उनके पिता का नाम शुद्धोधन था जो कि शाक्य के राजा थे। परंपरागत कथाओं के मुताबिक उनकी माता मायादेवी थि जो कोली वन्श से संबंधित थी, जिनका सिद्धार्थ के जन्म के 7 दिन बाद निधन हो गया था। इसके बाद उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी (महाप्रजावती गौतमी) ने किया था। जिसके बाद इनका नाम सिद्धार्थ रख दिया गया।

जिनके नाम का अर्थ है “वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो”। अर्थात सिद्ध आत्मा जिसे सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध बनकर अपने कामों से सिद्ध किया। वहीं इनके जन्म के समय एक साधु ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक एक महान राजा या किसी महान धर्म का प्रचारक होगा और आगे चलकर साधु महाराज की इस भविष्यवाणी को गौतम बुद्ध ने सही भी साबित किया और वे पवित्र बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बने और समाज में फैली बुराइयों को दूर कर उन्होनें समाज में काफी हद तक सुधार किया।

वहीं जब राजा शुद्धोधन को इस भविष्यवाणी के बारे में पता चला तो वे काफी सतर्क हो गए और उन्होनें इस भविष्यवाणी को गलत साबित करने के लिए अथक प्रयास किए क्योंकि सिद्धार्थ के पिता चाहते थे कि वे उनके राज सिंहासन को संभालें और अपने पुत्र के कर्तव्य को पूरा करें। वहीं इसलिए वे उन्हें अपने राजमहल से बाहर भी नहीं निकलने देते थे। वे सिदार्थ को अपने महल में सभी ऐशो-आराम देने की कोशिश करते थे। लेकिन बालक सिद्धार्थ का मन बचपन से ही इन आडम्बरों से दूर ही था इसलिए राजा की काफी कोशिशों के बाबजूद भी सिद्धार्थ ने अपने परिवारिक मोह-माया का त्याग कर दिया और सत्य की खोज में निकल पड़े।

गौतम बुद्ध शुरू से ही दयालु प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। एक कहानी के मुताबिक जब इनके सौतेले भाई देवव्रत ने एक पक्षी को अपने बाण से घायल कर दिया था, इस घटना से गौतम बुद्ध को काफी दुख हुआ था। जिसके बाद उन्होंने उस पक्षी की सेवा कर उसे जीवन दिया था। वहीं गौतम बुद्ध स्वभाव के इतने दयालु थे कि वे दूसरे के दुख में दुखी हो जाया करते थे। उन्हें प्रजा की तकलीफों को नहीं देखा जाता था लेकिन उनका यह स्वभाव राजा शुद्धोधन को अच्छा नहीं लगता था।

जब परिवारिक मोह को त्याग कर सिद्धार्थ ने लिया सन्यासी बनने का फैसला

राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ का मन शिक्षा में लगाया, जिसके चलते सिद्धार्थ ने विश्वामित्र से शिक्षा ग्रहण की थी। यही नहीं गौतम बुद्ध को वेद, उपनिषदों के साथ युद्ध कौशल में भी निपुण बनाया गया। सिद्धार्थ को बचपन से ही घुड़सवारी का शौक था वहीं धनुष-बाण और रथ हांकने वाला एक सारथी में कोई दूसरा मुकाबला नहीं कर सकता था।

वहीं 16 साल की उम्र में उनके पिता ने सिद्धार्थ की शादी राजकुमारी यशोधरा से कर दी। जिससे उन्हें एक बेटे पैदा हुआ, जिसका नाम राहुल रखा गया। गौतम बुद्ध का मन ग्रहस्थ जीवन में लगाने के लिए उनके पिता ने उन्हें सभी तरह की सुख-सुविधाएं उपलब्ध करवाईं। यहां तक कि सिद्धार्थ के पिता ने अपने बेटे के भोग-विलास का भी भरपूर बंदोबस्त किए था।

राजा शुद्दोधनने अपने बेटे सिद्धार्थ के लिए 3 ऋतुओं के हिसाब से 3 महल भी बनाए थे। जिसमें नाच-गान और ऐशो आराम की सभी व्यवस्थाएं मौजूद थी लेकिन ये चीजें भी सिद्धार्थ को अपनी तरफ आर्कषित नहीं कर सकी। क्योंकि सिद्धार्थ को इन आडम्बरों से दूर रहना ही पसंद था इसलिए वे इस पर कोई खास ध्यान नहीं देते थे। वहीं एक बार जब महात्मा बुद्ध दुनिया को देखने के लिए सैर करने निकले तो उन्हें एक बूढ़ा दरिद्र बीमार मिला जिसे देखकर सिद्धार्थ का मन विचलित हो गया और वे उसके कष्ट के बारे में सोचते रहे।

इस तरह दयालु प्रवृत्ति होने की वजह से उनका मन संसारिक मोह-माया से भर गया। वहीं एक बार भ्रमण के दौरान ही सिद्धार्थ ने एक संन्यासी को देखा, जिसके चेहरे पर संतोष दिखाई दिया, जिसे देखकर राजकुमार सिद्धार्थ काफी प्रभावित हुए और उन्हें सुख की अनुभूति हुई। वहीं इसके बाद उन्होंने अपने परिवारिक जीवन से दूर जाने और अपनी पत्नी और अपने बच्चे का त्याग करने का फैसला लिया और तपस्वी बनने का फैसला लिया। जिसके बाद वे जंगल की तरफ चले गए।

गौतम बुद्धा ने कठोर तपस्या कर की प्रकाश और सच्चाई की खोज (Gautam Buddha’s severe penance)

गौतम बुद्ध सिद्धार्थ ने जब घर छोड़ा था तब उनकी आयु महज 29 साल थी। इसके बाद उन्होंने जगह-जगह ज्ञानियों से ज्ञान लिया और तप के मार्ग की महत्ता को जानने की कोशिश की। इसके साथ ही उन्होनें आसन लगाना भी सीखा और साधना शुरु की। सबसे पहले वो वर्तमान बिहार के राजगीर स्थान पर जाकर मार्गो पर भिक्षा मांगकर अपना तपस्वी जीवन शुरू किया। वहीं इस दौरान राजा बिम्बिसार ने गौतम बुद्ध सिद्धार्थ को पहचान लिया और उनके उपदेश सुनकर उन्हें सिंहासन पर बैठने का प्रस्ताव दिया लेकिन उन्होंने मना कर दिया।

इसके अलावा कुछ समय के लिए वे आंतरिक शांति की खोज में वो पूरे देश के घूमकर साधू संतो से मिलने लगे। उस दौरान उन्होंने भी एक साधू की तरह भोजन का त्याग कर जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया। इस दौरान वे शरीर से काफी कमजोर हो गए लेकिन इन्हें कोई संतुष्टि नहीं मिली,

जिसके बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि अपने शरीर को तकलीफ देकर ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती है और फिर उन्होंने सही तरीके से ध्यान लगाना शुरु किया जिसके बाद उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती और अपने ईश्वर के लिए खुद को कष्ट देना अपराध है। यही नहीं इस सत्य को जानने के बाद महात्मा गौतम बुद्ध ने तपस्या और व्रत के तरीको की निंदा भी की।

भगवान गौतम बुद्ध को हुई ज्ञान की प्राप्ति (Lord Gautam Buddha attained enlightenment)

एक दिन गौतम बुद्ध बौद्ध गया पहुंचे। वे उस दौरान बहुत थक गए थे, वैशाखी पूर्णिमा का दिन था , वे आराम करने के लिए पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए और ध्यान लगाने लगे। इस दौरान भगवान गौतम बुद्ध ने यह प्रतिज्ञा ली कि जब तक उनको सत्य की खोज नही हो जाती तब तक वो यहां से नही हिलेंगे। 49 दिनों के ध्यान के बाद उन्होंने एक दिव्य रोशनी उनकी ओर आती हुई दिखी।

आपको बता दें कि यह गौतम बुद्ध की खोज का नया मोड़ था। इस दौरान उन्होनें इसकी खोज की थी कि सत्य हर मनुष्य के साथ है और उसे बाहर से ढूंढना निराधार है। इस घटना के बाद से उन्हें गौतम बुद्ध (Gautam Buddha) के नाम से जाना गया। वहीं उस वृक्ष को बोधिवृक्ष और उस जगह को बोध गया कहा जाने लगा। इसके बाद इन्होंने पालि भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया।

उस समय आम लोगों की भी पाली भाषा थी। यही वजह थी लोगों ने इसे आसानी से अपना लिया क्योंकि अन्य प्रवर्तक उस दौरान संस्कृत भाषा का इस्तेमाल करते थे। जिसे समझना लोगों के लिए थोड़ा कठिन था। इस वजह से भी लोग गौतम बुद्ध और बोद्ध धर्म की तरफ ज्यादा से ज्यादा आर्कषित हुए। देखते ही देखते बौद्ध धर्म की लोकप्रियता लोगों के बीच बढ़ती गई। वहीं इसके बाद भारत में कई अलग-अलग प्रदेशों में कई हजार अनुयायी फैल गए। जिनसे उनके संघ का गठन हुआ। वहीं इस संघ ने बौद्ध धर्म के उपदेशों को पूरी दुनिया में फैलाया। जिसके बाद बौद्ध धर्म की अनुयायिओं की संख्या दिन पर दिन बढ़ती गई।

गौतम बुद्ध ने लोगों को सच्चाई के मार्ग पर चलकर सरल मार्ग अपनाने का ज्ञान दिया। आपको बता दें कि किसी भी धर्म के लोग बौद्ध धर्म अपना सकते थे क्योंकि यह सभी जाति-धर्मों से एकदम दूर था। आपको बता दें कि गौतम बुद्ध को हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु का रूप माना गया था इसलिए इन्हें भगवान बुद्ध कहा जाने लगा।

इसके अलावा बौद्ध धर्म की इस्लाम में भी अपनी एक अलग जगह थी। बौद्ध धर्म में अहिंसा को अपनाने और सच्चाई के मार्ग पर चलकर सभी मानव जाति एवं पशु-पक्षी को सामान प्रेम का दर्ज देने को कहा गया। इसके साथ ही आपको बता दें कि महात्मा बुद्ध के पिता और उनके बेटे राहुल दोनों ने बाद में बौद्ध धर्म अपनाया था।

गौतम बुद्ध के उपदेशों एवं प्रवचनों का प्रचार प्रसार सबसे ज्यादा सम्राट अशोक ने किया. दरअसल कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार से व्यथित होकर सम्राट अशोक का ह्रदय परिवर्तन हो गया और उन्होंने महात्मा बुद्ध के उपदेशों को अपनाते हुए इन उपदेशों को अभिलेखों द्वारा जन-जन तक पहुंचाया। यही नहीं सम्राट अशोक ने विदेशों में भी बौद्ध धर्म के प्रचार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

गौतम बुद्ध की दी गयी शिक्षा (Teachings given by Gautam Buddha)

  • गौतम बुद्ध ने तत्कालीन रुढियों और अन्धविश्वासों का खंडन कर एक सहज मानवधर्म की स्थापना की। उन्होंने कहा कि जीवन संयम, सत्य और अहिंसा का पालन करते हुए पवित्र और सरल जीवन व्यतीत करना चाहिए।
  • उन्होंने कर्म, भाव और ज्ञान के साथ ‘सम्यक्’ की साधना को जोड़ने पर बल दिया, क्योंकि कोई भी ‘अति’ शांति नहीं दे सकती। इसी तरह पीड़ाओ तथा मृत्यु भय से मुक्ति मिल सकती है और भयमुक्ति एवं शांति को ही उन्होंने निर्वाण कहा है।
  • उन्होंने निर्वाण का जो मार्ग मानव मात्र को सुझाया था,वह आज भी उतनाही प्रासंगिक है जितना आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व था, मानवता की मुक्ति का मार्ग ढूंढने के लिए उन्होंने स्वयं राजसी भोग विलास त्याग दिया और अनेक प्रकार की शारीरिक यंत्रणाए झेली।
  • गहरे चिंतन – मनन और कठोर साधना के पश्चात् ही उन्हें गया (बिहार) में बोधिवृक्ष के निचे तत्वज्ञान प्राप्त हुआ था। और उन्होंने सर्व प्रथम पांच शिष्यों को दिक्षा दी थी।

गौतम बुद्ध का परिनिर्वाण (Gautam Buddha Death)

80 साल की आयु में गौतम बुद्द ने अपने निर्वाण की घोषणा की थी। समाधि धारण करने के बाद गौतम बुद्ध के अनुनयायियों ने बौद्ध धर्म का जमकर प्रचार-प्रसार किया था। उस दौरान महात्मा बुद्ध द्दारा दिए गए उपदेशों को जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश की गई और बड़े स्तर पर लोगों ने बौद्ध धर्म के उपदेशों का अनुसरण भी किया। भारत के अलावा भी चीन, थाईलैंड, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, श्री लंका जैसे देशों ने बौद्ध धर्म को अपनाया था।

बौद्ध धर्म का प्रचार (Promotion of Buddhism)

तत्पश्चात अनेक प्रतापी राजा भी उनके अनुयायी बन गये। उंका धर्म भारत के बाहर भी तेजी से फैला और आज भी बौद्ध धर्म चीन, जापान आदि कई देशों का प्रधान धर्म है। उनके द्वारा बताये गयी बातो की स्थानिक लोग बड़ी श्रद्धा से मानते थे और उनकी मृत्यु के बाद भी लोग उनके द्वारा बताये गए रास्तो पर चलते थे और उनकी बातो का पालन करते थे। उनकी बातो को कई लोगो ने अपने जीवन में अपनाकर अपना जीवन समृद्ध बनाया है और उनकी मृत्यु के 400 साल बाद भी लोग उन्हें भगवान का रूप मानते थे।

दुखों से मक्ति दिलाने के लिए बुद्ध ने बताया अष्टांगिक मार्ग (Buddha’s Eightfold Path)

महात्मा बुद्ध के उपदेश बड़े ही सीधे और सरल थे। उन्होंने कहा था कि समस्त संसार दु:खों से भरा हुआ है और यह दु:ख का कारण इच्छा या तृष्णा है। इच्छाओं का त्याग कर देने से मनुष्य दु:खों से छूट जाता है। उन्होंने लोगों को ये भी बताया कि सम्यक-दृष्टि, सम्यक- भाव, सम्यक- भाषण, सम्यक-व्यवहार, सम्यक निर्वाह, सत्य-पालन, सत्य-विचार और सत्य ध्यान से मनुष्य की तृष्णा मिट जाती है और वह सुखी रहता है। भगवान बुद्ध के उपदेश आज के समय में भी बहुत प्रासंगिक हैं।

महात्मा बुद्ध का जीवन वाकई प्रेरणा देना वाला है। उन्होंने मानवता की मुक्ति का मार्ग ढूंढने के लिए उन्होंने खुद राजसी भोग विलास त्याग दिया और कई तरह की शारीरिक परेशानियों का सामना किया। उन्होनें ज्ञान और सत्य की खोज के लिए कठोर साधना की। जिसके बाद ही उन्हें बिहार में बोधिवृक्ष के नीचे तत्वज्ञान प्राप्त हुआ।

महात्मा बुद्ध ने अपने 5 शिष्यों को दिक्षा भी दी थी यहां तक कि कई बुद्धिमान और प्रतापी राजा भी महात्मा बुद्ध के उपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनते थे और उनका अनुसरण करते थे और वे भी गौतम बुद्ध के अनुयायी बन गए थे। इस तरह बौद्ध धर्म भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बड़ी तेजी से फैल गया था।

भगवान गौतम बुद्ध के मुताबिक मानव जीवन दुखों से भरा पड़ा है। उन्होंने बताया कि पूरे संसार मे सारी वस्तुएं दु:खमय है। इसके अलावा भगवान गौतम बुद्ध में मानव जीवन और मरण के चक्र को दुखों का मूल कारण माना और बताया कि किसी भी धर्म का मूल उद्देश्य मानव को इस जन्म और मृत्यु के चक्र से छुटकारा दिलाना होना चाहिए।

महात्मा गौतम बुद्ध ने संसार में व्याप्त न सिर्फ दुखों के बारे में बताया बल्कि दुख उत्पन्न होने के कई कारण भी बताए। इसके अलावा भगवान गौतम बुद्ध ने दुखों से छुटकारा दिलाने के मार्ग को भी बताया है। आपको बता दें कि इसके लिए बुद्ध ने अष्टांगिक मार्ग को उपयुक्त बताया है।

अष्टांग मार्ग

सम्यक दृष्टि

सत्य तथा असत्य को पहचानने कि शक्ति। महात्मा बुद्ध के मुताबिक जो भी शख्स दुखों से मुक्ति जाना चाहता है। उसमें सत्य और असत्य को पहचानने की शक्ति होनी चाहिए।

सम्यक संकल्प

इच्छा एवं हिंसा रहित संकल्प। महात्मा बुद्ध के मुताबिक जो लोग दुखों से मुक्ति पाना चाहते हैं। उन्हें ऐसे संकल्प लेने चाहिए जो कि हिंसा रहित हो और उनकी इच्छा प्रवल हो।

सम्यक वाणी

सत्य एवं मृदु वाणी। दुखों से निजात पाने के लिए महात्मा बुद्ध ने सम्यक वाणी का भी वर्णन किया है। बुद्ध की माने तो सत्य और मधुर बोलने से इंसान को सुख की अनुभूति होती है और दुख उसके आस-पास भी नहीं भटकता है।

सम्यक कर्म

सत्कर्म, दान, दया, सदाचार, अहिंसा इत्यादि। दया, करूणा का भाव रखना और दान-पुण्य और अच्छे कर्मों से भी मनुष्य दुखों से दूर रहता है।

सम्यक आजीव

जीवन यापन का सदाचार पूर्ण एवं उचित मार्ग। गौतम बुद्ध ने सम्यक आजीव को भी जीवन यापन का उचित मार्ग बताया है।

सम्यक व्यायाम

विवेकपूर्ण प्रयत्न। महात्मा बुद्ध ने दुखों को दूर करने के लिए सम्यक व्यायाम करने को भी कहा। उनका कहना था कि किसी काम को करने के लिए अगर विवेकपूर्ण प्रयास किए जाएं तो सफलता जरूर अर्जित होती है और मानव दुखों से दूर रहता है।

सम्यक स्मृति

अपने कर्मो के प्रति विवेकपूर्ण ढंग से सजग रहने कि शिक्षा देता है।

महात्मा बुद्ध ने मानव जीवन के दुखों को दूर करने के लिए अपने कर्मों के प्रति विवेकपूर्ण ढंग से सजग रहने की भी शिक्षा दी है।

सम्यक समाधि

चित कि एकाग्रता। महात्मा बुद्ध ने मानव जीवन में एकाग्रता के महत्वों को भी बताया है उन्होंने कहा सम्यक समाधि लेने से मनुष्य दुखों से दूर रहता है।

इसके अलावा गौतम बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति को सरल बनाने के लिए निम्न दस शीलों पर बल दिया।

  1. अहिंसा,
  2. सत्य,
  3. अस्तेय (चोरी न करना),
  4. अपरिग्रह (किसी प्रकार कि संपत्ति न रखना),
  5. मध सेवन न करना,
  6. असमय भोजन न करना,
  7. सुखप्रद बिस्तर पर नहीं सोना,
  8. धन संचय न करना,
  9. स्त्रियो से दूर रहना,
  10. नृत्य गान आदि से दूर रहना।

इसके साथ ही भगवान बुद्ध ने जीवों पर दया करने का भी उपदेश दिया और हवन, पशुबलि जैसे आडम्बरों की जमकर निंदा की है।

बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण बातें

बौद्ध धर्म सभी जातियों और पंथों के लिए खुला है। उसमें हर आदमी का स्वागत है। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा खुला है। उनके धर्म में जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं है।

महात्मा गौतम बुद्ध ने अपने उपदेशों से न सिर्फ कई लोगों की जिंदगी को सफल बनाया बल्कि लोगों की सोच भी विकसित की। इसके साथ ही लोगों में करुणा और दया का भाव भी पैदा करने में अपनी अहम भूमिका निभाई।

बौद्ध शब्द का अर्थ इन्सान के अंतरात्मा को जगाना है। वहीं जब लोगों को बौद्ध धर्म के बारे में पता लगना शुरु हुआ तो लोग इस धर्म की तरफ आर्कषित हुए। अब न सिर्फ भारत के लोग बल्कि दुनिया के कई करोड़ लोग बौद्ध धर्म का पालन करते हैं। इस तरह गौतम बुद्ध के अनुयायी पूरी दुनिया में फैल गए।

गौतम बुद्ध की जयंती या बुद्ध पूर्णिमा कब मनाई जाती है? (Gautam Buddha Jayanti, Buddha Purnima)

गौतम बुद्ध की जयंती या फिर वैशाख की पूर्णिमा, हिन्दी महीने के दूसरे महीने में मनाई जाती है। इसलिए इसे वेसक या फिर हनमतसूरी भी कहा जाता है। खासकर यह पर्व बौद्ध धर्म के प्रचलित है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले लोग बुद्धि पूर्णिमा को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं, क्योंकि यह उनका एक प्रमुख त्यौहार भी है।

बुद्ध पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था, इसी दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इसी दिन उनका महानिर्वाण भी हुआ था। जबकि ऐसा किसी अन्य महापुरुष के साथ नहीं हुआ है। इसलिए इसी दिन को गौतम बुद्ध की जयंती या फिर बुद्ध पूर्णिमा के रूप में मनाया जाने लगा।

बुद्ध प्रतिमाएँ

मथुरा के कुषाण शासक, जिनमें से अधिकांश ने बौद्ध धर्म को प्रोत्साहित किया, मूर्ति निर्माण के पक्षपाती थे। यद्यपि कुषाणों के पूर्व भीमथुरा में बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्म से सम्बन्धित प्रतिमाओं का निर्माण किया गया था। विदित हुआ है कि कुषाण काल में मथुरा उत्तरभारत में सबसे बड़ा मूर्ति निर्माण का केन्द्र था और यहाँ विभिन्न धर्मों सम्बन्धित मूर्तियों का अच्छा भण्डार था। इस काल के पहले बुद्ध की स्वतंत्र मूर्ति नहीं मिलती है।

बुद्ध का पूजन इस काल से पूर्व विविध प्रतीक चिह्नों के रूप में मिलता है। परन्तु कुषाण काल के प्रारम्भ से महायान भक्ति, पंथ भक्ति उत्पत्ति के साथ नागरिकों में बुद्ध की सैकड़ों मूर्तियों का निर्माण होने लगा। बुद्ध के पूर्व जन्म की जातक कथायें भी पत्थरों पर उत्कीर्ण होने लगी। मथुरा से बौद्ध धर्म सम्बन्धी जो अवशेष मिले हैं, उनमें प्राचीन धार्मिक एवं लौकिक जीवन के अध्ययन की अपार सामग्री है।

मथुरा कला के विकास के साथ–साथ बुद्ध एवं बौधित्सव की सुन्दर मूर्तियों का निर्माण हुआ। गुप्त कालीन बुद्ध प्रतिमाओं में अंग प्रत्यंग के कला पूर्ण विन्यास के साथ एक दिव्य सौन्दर्य एवं आध्यात्मिक गांभीर्य का समन्वय मिलता है।

ब्रज (मथुरा)

मथुरा और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था। जो बुद्ध के जीवन-काल से कुषाण-काल तक अक्षु्ण रहा। ‘अंगुत्तरनिकाय’ के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था। ‘वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त’ में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है। पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी।

मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये, फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की। भगवान बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे। इस नगर में अशोक के गुरु उपगुप्त, ध्रुव (स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता भी निवास करती थी। मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था। राजगृह से तक्षशिला जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।

सांकाश्य

गौतम बुद्ध के जीवन काल में सांकाश्य ख्याति प्राप्त नगर था। पाली कथाओं के अनुसार यहीं बुद्ध त्रयस्त्रिंश स्वर्ग से अवतरित होकर आए थे। इस स्वर्ग में वे अपनी माता तथा तैंतीस देवताओं को अभिधम्म की शिक्षा देने गए थे। पाली दंतकथाओं के अनुसार बुद्ध तीन सीढ़ियों द्वारा स्वर्ग से उतरे थे और उनके साथ ब्रह्मा और शक भी थे। इस घटना से संबन्ध होने के कारण बौद्ध, सांकाश्य को पवित्र तीर्थ मानते थे और इसी कारण यहाँ अनेक स्तूप एवं विहार आदि का निर्माण हुआ था।

यह उनके जीवन की चार आश्चर्यजनक घटनाओं में से एक मानी जाती है। सांकाश्य ही में बुद्ध ने अपने प्रमुख शिष्य आन्नद के कहने से स्त्रियों की प्रव्रज्या पर लगाई हुई रोक को तोड़ा था और भिक्षुणी उत्पलवर्णा को दीक्षा देकर स्त्रियों के लिए भी बौद्ध संघ का द्वार खोल दिया था। पालिग्रंथ अभिधानप्पदीपिका में संकस्स (सांकाश्य) की उत्तरी भारत के बीस प्रमुख नगरों में गणना की गई है।पाणिनी ने [11] में सांकाश्य की स्थिति इक्षुमती नदी पर कहीं है जो संकिसा के पास बहने वाली ईखन है।

कौशांबी

उदयन के समय में गौतम बुद्ध कौशांबी में अक्सर आते-जाते रहते थे। उनके सम्बन्ध के कारण कौशांबी के अनेक स्थान सैकड़ों वर्षों तक प्रसिद्ध रहे। बुद्धचरित 21,33 के अनुसार कौशांबी में, बुद्ध ने धनवान, घोषिल, कुब्जोत्तरा तथा अन्य महिलाओं तथा पुरुषों को दीक्षित किया था।

यहाँ के विख्यात श्रेष्ठी घोषित (सम्भवतः बुद्धचरित का घोषिल) ने ‘घोषिताराम’ नाम का एक सुन्दर उद्यान बुद्ध के निवास के लिए बनवाया था। घोषित का भवन नगर के दक्षिण-पूर्वी कोने में था। घोषिताराम के निकट ही अशोक का बनवाया हुआ 150 हाथ ऊँचा स्तूप था। इसी विहारवन के दक्षिण-पूर्व में एक भवन था जिसके एक भाग में आचार्य वसुबंधु रहते थे। इन्होंने विज्ञप्ति मात्रता सिद्धि नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसी वन के पूर्व में वह मकान था जहाँ आर्य असंग ने अपने ग्रंथ योगाचारभूमि की रचना की थी।

वैरंजा

बुद्धचरित 21, 27 में बुद्ध का इस अनभिज्ञात नगर में पहुँचकर ‘विरिंच’ नामक व्यक्ति को धर्म की दीक्षा देने का उल्लेख है। यहाँ के ब्राह्मणों का बौद्ध साहित्य में उल्लेख है। गौतम बुद्ध यहाँ पर ठहरे थे और उन्होंने इस नगर के निवासियों के समक्ष प्रवचन भी किया था। भगवान गौतम बुद्ध के असंख्य अनुयायी बन चुके थे, लेकिन इन अनुयायियों में ब्राह्मणों की एक बहुत बड़ी संख्या थी। इस प्रकार बुद्ध के प्रवचनों तथा उनकी शिक्षाओं का ब्राह्मणों पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था।

कान्यकुब्ज

युवानच्वांग लिखता है कि कान्यकुब्ज के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार Gautam Buddha ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छः मास तक ठहरे थे।

वाराणसी

बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि बुद्ध वाराणसी में कई बार ठहरे थे। बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है। बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।

बौद्ध धर्म के अन्य अनुयायी (Other followers of Buddhism)

ह्वेन त्सांग

भारत में ह्वेन त्सांग ने बुद्ध के जीवन से जुड़े सभी पवित्र स्थलों का भ्रमण किया और उपमहाद्वीप के पूर्व एवं पश्चिम से लगे इलाक़ो की भी यात्रा की। उन्होंने अपना अधिकांश समय नालंदा मठ में बिताया, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध दर्शन एवं भारतीय चिंतन में दक्षता हासिल की। इसके बाद ह्वेन त्सांग ने अपना जीवन बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुवाद में लगा दिया जो 657 ग्रंथ थे और 520 पेटियों में भारत से लाए गए थे। इस विशाल खंड के केवल छोटे से हिस्से (1330 अध्यायों में क़रीब 73 ग्रंथ) के ही अनुवाद में महायान के कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं।

मिलिंद (मिनांडर)

उत्तर-पश्चिम भारत का ‘हिन्दी-यूनानी’ राजा ‘मनेन्दर’ 165-130 ई. पू. लगभग (भारतीय उल्लेखों के अनुसार ‘मिलिन्द’) था। प्रथम पश्चिमी राजा जिसने बौद्ध धर्म अपनाया और मथुरा पर शासन किया। भारत में राज्य करते हुए वह बौद्ध श्रमणों के सम्पर्क में आया और आचार्य नागसेन से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।

मिलिंद (मिनांडर) का सिक्का: बौद्ध ग्रंथों में उसका नाम ‘मिलिन्द’ आया है। ‘मिलिन्द पञ्हो’ नाम के पालि ग्रंथ में उसकेबौद्ध धर्म को स्वीकृत करने का विवरण दिया गया है। मिनान्डर के अनेक सिक्कों पर बौद्ध धर्म के ‘धर्मचक्र’ प्रवर्तन का चिह्न ‘धर्मचक्र’ बना हुआ है, और उसने अपने नाम के साथ ‘ध्रमिक’ (धार्मिक) विशेषण दिया है।

फ़ाह्यान

फ़ाह्यान का जन्म चीन के ‘वु-वंग’ नामक स्थान पर हुआ था। यह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों ‘हुई-चिंग’, ‘ताओंचेंग’, ‘हुई-मिंग’, ‘हुईवेई’ के साथ भारत यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्ही स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थे।

अशोक

सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। जीवन के उत्तरार्ध में अशोक गौतम बुद्ध (Gautam Buddha) के भक्त हो गए और उन्हीं (महात्मा बुद्ध) की स्मृति में उन्होंने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल-लुम्बिनी में मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्‍तम्‍भ के रूप में देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया, मिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक के अभिलेखों में प्रजा के प्रति कल्याणकारी द्रष्टिकोण की अभिव्यक्ति की गई है।

कनिष्क

कुषाण राजा कनिष्क के विशाल साम्राज्य में विविध धर्मों के अनुयायी विभिन्न लोगों का निवास था, और उसने अपनी प्रजा को संतुष्ट करने के लिए सब धर्मों के देवताओं को अपने सिक्कों पर अंकित कराया था। पर इस बात में कोई सन्देह नहीं कि कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी था, और बौद्ध इतिहास में उसका नाम अशोक के समान ही महत्त्व रखता है। आचार्य अश्वघोष ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था। इस आचार्य को वह पाटलिपुत्र से अपने साथ लाया था, और इसी से उसने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।

गौतम बुद्ध के सुविचार (Gautam Buddha quotes)

  1. “वह हमारा खुद का ही दिमाग होता है, हमारे दुश्मन का नही होता- जो हमें गलत रास्तो पर ले जाता है।”
  2. “दर्द तो निश्चित है, कष्ट वैकल्पिक है।”
  3. “जहा आप खाते हो, चलते हो यात्रा करते हो, वही रहने की कोशिश करे. नहीं तो आप अपने जीवन में बहोत कुछ खो सकते हो।”
  4. “हमेशा याद रखे एक गलती दिमाग पर उठाए भारी बोझ के सामान है।”
  5. “आप तब तक रास्ते पर नही चल सकते जब तक आप खुद अपना रास्ता नही बना लेते।”

गौतम बुद्ध से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न (FAQs)

महात्मा बुद्ध का संक्षिप्त परिचय दीजिये?

महात्मा बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक और महान समाज सुधारक थे। इनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था। इनको गौतम के नाम से भी पुकारा जाता था। आगे चलकर ये बुद्ध के नाम से अपने अनुयायियों व दुनिया में प्रतिष्ठित हुए।

गौतम बुद्ध का जन्म कब और कहाँ हुआ?

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व बैशाख पूर्णिमा के दिन कपिलवस्तु राज्य के लुम्बिनी ग्राम में हुआ।

गौतम बुद्ध के माता-पिता कौन थे? पालन पोषण किसने किया?

गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोधन थे, जोकि शाक्य कुल के क्षत्रिय थे और कपिलवस्तु के राजा थे। कपिलवस्तु नेपाल की तराई क्षेत्र में स्थित छोटा राज्य था। गौतम बुद्ध की माता का नाम महामाया था। जन्म के सातवें दिन ही माता का देहांत हो गया। अत: पालन-पोषण इनकी मौसी प्रजापति गौतमी ने किया।

सिद्धार्थ का विवाह किसके साथ हुआ?

सिद्धार्थ का विवाह 16 वर्ष की अवस्था में यशोधरा के साथ हुआ, जोकि शाक्य कुल की कन्या थीं।

गौतम बुद्ध के पुत्र का नाम क्या था?

गौतम बुद्धा और यशोधरा के पुत्र का नाम राहुल था।

बुद्ध ने महाभिनिष्क्रमण क्यों और कब किया?

सांसारिक समस्याओं से व्यथित होकर सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर दिया। इस त्याग को बौद्ध धर्म में महाभिनिष्क्रमण के नाम से जाना जाता है।

गौतम बुद्ध ने प्रथम दीक्षा किससे ली?

गृहत्याग के उपरांत सिद्धार्थ सर्वप्रथम अनोमा नदी के तट पर ही पहुंचे थे। यहां पर उन्होंने अपने सिर को मुंडवाकर भिक्षुओं वाले काषाय वस्त्र धारण किए ।ज्ञान की खोज में सिद्धार्थ सबसे पहले वैशाली के अलार कलाम नामक संन्यासी के पास पहुंचे, जिन्होंने इन्हें सांख्य दर्शन की दीक्षा दी।

गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कहाँ और कब हुई?

अलारकलाम के आश्रम के बाद सिद्धार्थ ने उरुवेला (बोधगया) के लिए ही प्रस्थान किया था, जहां इनकी कौडिन्य आदि पांच संन्यासियों से भेंट हुई। 35 वर्ष की अवस्था में, उरुवेला में ही निरंजना नदी के तट पर स्थित पीपल के वृक्ष के नीचे इन्हें ज्ञान का बोध हुआ। उस दिन बैसाख पूर्णिमा का दिन था।

सिद्धार्थ को बुद्ध के नाम का संबोधन क्यों मिला?

उरुवेला में ज्ञान की प्राप्ति के बाद लोग इन्हें तथागत या बुद्ध (ज्ञानी) के नाम से संबोधित करने लगे। इस स्थान को भी आगे चलकर बोधगया के नाम से जाना गया।

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