महाभारत ग्रन्थ में हमने अनेकों किरदारों के बारे में पढ़ा है और उन किरदारों के सन्दर्भ में अनेकों प्रचलित कथाओं के बारे में सुना भी है। साधारणतया महाभारत का ज़िक्र होने पर सबसे पहले जिनका स्मरण हमें होता है वो हैं – पांडव तथा कौरव। कुंती पुत्र पांडवों के बारे में तो सभी ने सुना होगा की कैसे कुंती द्वारा पांच पुत्रों का जन्म हुआ लेकिन कौरवों के जन्म की कहानी तथा उसके रहस्य को कम ही लोग जानते होंगे। जहाँ कुंती के पांच पुत्र हुए वहीँ गांधारी के सौ पुत्र और एक पुत्री हुई। ये बात काफी अचंभित करने वाली है कि कैसे गांधारी ने 101 सन्तानों को जन्म दिया। महाभारत में कर्म की, धर्म की, श्राप तथा वरदान की अपनी अहम भूमिका रही है। हमें महाभारत में ऐसी अनेकों घटनाओ का वर्णन मिलता है जिसके पीछे किसी न किसी अभिशाप या वरदान की विशेष भूमिका रही है।ऐसे ही एक वरदान की कहानी कौरवो के जन्म के साथ भी जुडी हुई है। ये अवश्य ही किसी वरदान का ही चमत्कार था अथवा वरदान का ही फल था की गांधारी ने एक साथ सौ पुत्रों को जन्म दिया।गांधारी के पिता गांधार नरेश सुबल ने अपनी पुत्री का विवाह हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र से तय किया। धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन थे किन्तु जब गांधारी को ये बात ज्ञात हुई की जिससे उसका विवाह होने जा रहा है वह नेत्रहीन हैं तो गांधारी ने पतिव्रता धर्म निभाते हुए अपनी आँखों पर भी पट्टी बांध ली और आजीवन अपने पति की ही भांति नेत्रहीन रहने का निर्णय लिया।
धृतराष्ट्र और गांधारी का दांपत्य जीवन बड़ी ही कुशलता से बीत रहा था। इसी बीच एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आये। गांधारी ने उनका बड़ी ही ख़ुशी से खूब आदर सत्कार किया।गांधारी के सेवा भाव से अत्यंत प्रसन्न होकर महर्षि वेदव्यास ने गांधारी को एक वरदान मांगने को कहा। उस समय गांधारी ने अपने पति धृतराष्ट्र के ही समान सौ बलशाली पुत्रों का आशीर्वाद महर्षि वेदव्यास से मांग लिया। महर्षि ने भी उनको इसका आशीर्वाद दे दिया और वापस लौट गए।
कुछ समय बीतने के पश्चात् गांधारी गर्भवती हुई। पूरे दो वर्ष बीत गए लेकिन अभी तक गांधारी की किसी भी संतान ने जन्म नहीं लिया था ।ये बात अचंभित करने वाली थी की दो सालों के बीत जाने पर भी गांधारी की अभी तक कोई संतान क्यों नहीं हुई?? गांधारी भी चिन्तित हो उठी की साधारण से इतना अधिक समय बीत जाने पर भी उसकी संतान अभी तक गर्भ में ही कैसे है?? इसी तरह के कई प्रश्न गांधारी के मन में जन्म ले रहे थे लेकिन इसका कोई भी हल दिखाई नहीं दे रहा था। गांधारी बस इसी सोच में डूबी रहती और इसीलिए कभी कभी उसे क्रोध भी आता की आखिर कब तक उसकी संतानें उसकी गर्भ में इसी तरह रहेंगी।
इसी तरह समय बीतता गया और एक दिन गांधारी को अत्यंत क्रोध आ गया। क्रोध के आक्रोश में आकर गांधारी अपने पेट में ज़ोर ज़ोर से मुक्के मारने लगी जिसकी वजह से उसका गर्भ गिर गया और उसमे से लोहे के समान एक मांस का पिंड निकला।अपनी योगशक्ति से महर्षि वेदव्यास को इस भी इस बात का भान हो गया और वो तुरंत ही हस्तिनापुर जा पहुंचे। वहाँ पहुंच कर उन्होंने गांधारी से वृत्तांत सुना और गांधारी को आदेश दिया की वह सौ कुंडों में घी भर कर रख दे। गांधारी ने ठीक वैसा ही किया और उनके आदेशानुसार सौ कुंडों में घी भर कर रख दिया। ऐसा करने के पश्चात महर्षि ने गांधारी को उसके गर्भ से निकले उस मांस के टुकड़े पर जल छिड़कने को कहा। जब गांधारी ने उस पर जल छिड़का तो उस मांस के एक पिंड के सौ टुकड़े हो गए। तत्पश्चात महर्षि ने गांधारी को पुनः आदेश दिया की वह उन सौ टुकड़ो को घी से भरे उन सौ कुंडों में डाल दे और उन कुंडों को दो वर्ष के बाद ही खोले। गांधारी ने महर्षि की आज्ञा का पालन किया और ठीक वैसा ही किया।महर्षि की आज्ञा के अनुसार गांधारी ने दो वर्षों तक उन घी के कुंडों को नहीं खोला और पूरे दो वर्ष बीत जाने के बाद ही घी से भरे उन कुंडों को खोला। जब गांधारी ने उन्हें खोला तो उसने देखा की वह मांस के टुकड़े एक शरीर में बदल गए हैं। जब उसने पहला कुंडा खोला तो उससे गांधारी को एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम दुर्योधन रखा गया। इसके बाद उसने एक एक करके सभी कुंडों को खोला और इसी प्रकार उसके बाकि निन्यानब्बे (99) पुत्रों का भी जन्म हुआ। ये सभी आगे चल कर कौरव कहलाये। गांधारी की एक पुत्री भी हुई जिसका नाम दुश्शला रखा गया।दुश्शला का विवाह सिंधु प्रदेश के राजा जयद्रथ के साथ हुआ।
जयद्रथ के पिता वृद्धक्षत्र को भी यह वरदान प्राप्त था की उसके पुत्र का वध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर पायेगा।जो भी जयद्रथ को मारकर उसका सर धरती पर गिरायेगा,उसके सर के हज़ार टुकड़े हो जायेंगे।जयद्रथ को मारना वाकई में किसी साधारण व्यक्ति द्वारा संभव नहीं था लेकिन बाद में जयद्रथ का वध भी कुंती पुत्र अर्जुन के द्वारा बड़ी की बुद्धिमानी से किया गया।
कहा जाता है कि दुर्योधन के जन्म के पश्चात ऋषि मुनियों ने भविष्यवाणी की थी की वह आगे चल कर कुल के विनाश का कारण बनेगा इसलिए धृतराष्ट्र और गांधारी को अपने पुत्र का त्याग करना होगा अर्थात उसका बलिदान देना होगा परन्तु पुत्र मोह के कारण वो ऐसा नहीं कर पाए। इसके बाद आगे चलकर दुर्योधन महाभारत के युद्ध का कारण बना जिसमें सभी कौरवों का विनाश हो गया एवं उनके कुल का नाश हो गया। महाभारत के युद्ध समाप्ति के बाद जब गांधारी ने अपने पुत्रों के शव देखे तो बड़ी ज़ोर ज़ोर से विलाप करने लगी गांधारी को श्री कृष्ण पर अत्यधिक क्रोध आया। गांधारी ने कहा की आप चाहते तो युद्ध होने से रोक सकते थे। युद्ध नहीं होता तो मेरे सभी पुत्र जीवित होते और इस तरह मेरे कुल का सर्वनाश नहीं होता। इसी क्रोध के आक्रोश में आकर गांधारी ने श्री कृष्ण को श्राप भी दे डाला की आज से ठीक 36 वर्षों के बाद वह भी अपने परिवार अपने कुल के सदस्यों को खो देंगे और ठीक इसी तरह उनके कुल का भी सर्वनाश हो जायेगा। अंततः ऐसा ही हुआ कुछ वर्षों के पश्चात भगवान श्री कृष्ण के कुल का भी सर्वनाश हो गया और खुद भगवान श्री कृष्ण को भी गांधारी द्वारा दिए गए श्राप को भोगना पड़ा।
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