महाभारत के बारे में सुनते ही सबसे पहले हमें “गीता का सार” अर्थात श्री कृष्ण लीला और उसके बाद महाभारत के उस महासंग्राम का आभास होता है, जिसमें हज़ारों सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए । द्वापरयुग के उस युद्ध काल की और भी ऐसी बहुत सी कथाएं प्रचलित हैं जिनका महाभारत के उस भीषण युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं, परन्तु ये कहानियां श्री कृष्ण की अद्भुद लीलाओं की साक्षी हैं । सम्पूर्ण द्वापरयुग श्री नारायण के “कृष्णावतार” का साक्षी रहा है और कुरुक्षेत्र का मैदान “गीता के सार” का। आइये जानते हैं एक ऐसा ही प्रेरक प्रसंग जिसमें मात्रा दो मुद्राओं के कमाल से श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपनी अद्भुद लीला के दर्शन कराये:
एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा.. अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी। जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला, किन्तु उस ब्राह्मण का दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था। राह में एक लुटेरे ने ब्राह्मण से वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने ब्राह्मण से इसका कारण पूछा। ब्राहमण ने मार्ग में हुआ सारा वृत्तांत अर्जुन को सुना दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी । अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी, इस बीच ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर चली गई और जैसे ही उसने घड़े को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो पहले अपनी पत्नी और फिर अपने भाग्य को कोसता हुआ वह भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता। श्री कृष्ण भी अर्जुन और ब्राह्मण के इस प्रसंग के साक्षी थे। अब श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोका और स्वयं उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए। तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु मेरी दी मुद्राए और माणिक भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से इसका क्या होगा”? यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि “दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है “?ऐसा विचार करता हुआ वह चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक मछली फँसी है, और वह मछली छूटने के लिए तड़प रही है ।
ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा “इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये”। यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा। तभी मछली के मुख से कुछ निकला। उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था। ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!! तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया। श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए, तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।
इस प्रकार एक छोटे से प्रसंग के माध्यम से श्री कृष्ण ने मानव जीवन में प्रभु की महत्वता, सोच और कर्म के अनुरूप परिणाम की सीख दी और यही सीख भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के प्रारम्भ से पहले कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को दी थी।जहां पर श्री कृष्ण ने मनुष्य के वश में सिर्फ कर्म करते रहने को बताया है और उस कर्म के परिणाम के लिए भगवान् को उत्तरदायी बताया है। कर्म की प्रधानता और उसी कर्म के अनुकूल परिणाम के अनेकों उदाहरण हमें इतिहास में मिलते रहे हैं। दुर्योधन ने दुष्कर्म किये तो उसे मृत्यु प्राप्त हुयी, वही कौरवों में से एक “युयत्सु ” ने धर्म का साथ दिया तो वह युद्ध के बाद भी जीवित रहा और सकुशल एक लम्बी आयु तक अपना जीवन व्यतीत किया।
यह भी देखें ???????? कर्ण को दानवीर कर्ण के नाम से जाना जाता है