हमारे हिन्दू धर्म में शुरू से ही कर्म की प्रधानता रही है और इसका सटीक अर्थ हमें महाभारत ग्रन्थ में देखने को मिलता है। गीता में भी भगवान श्री कृष्णा ने कर्म और उसके फल के बारे में विस्तार से बताया है कि कैसे किसी भी प्राणी विशेष को उसके अच्छे या बुरे कर्मो का फल भोगना ही पड़ता है ,इन्ही कर्मो के चक्र के चलते हमें अपने जीवन में सुख और दुःख को भोगना पड़ता है। ऐसी ही एक कथा भीष्म पितामह के साथ भी जुडी हुई है जिसे शायद ही कोई जानता हो।
गंगा पुत्र भीष्म पितामह की महाभारत में अहम भूमिका रही है और उनकी भीष्म प्रतिज्ञा से तो सभी भली भाँती परिचित ही हैं, शायद ही कोई होगा जिसने इतने निस्वार्थ भाव से हस्तिनापुर की सेवा की थी। उनसे प्रसन्न होकर ही उनके पिता शांतनु ने उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया था जिससे की वह जब चाहें अपना शरीर त्याग सकते हैं लेकिन फिर भी उन्हें कई दुखो का सामना करना पड़ा और महाभारत के युद्ध के चलते अपने जीवन का अंतिम समय बाणों की नुकीली शैय्या पर बिताना पड़ा। भीष्म पितामह 58 दिनों तक उसी नुकीली बाणों की शैय्या पर लेटे रहे और कष्ट भोगते रहे।
कहा जाता है इस बीच कई शल्य चिकित्सक उनके उपचार के लिए आये लेकिन उन्होंने उनकी कोई भी सहायता नहीं ली और यह कह कर उन्हें वापस भेज दिया की वो सिर्फ सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और तत्पश्चात अपने प्राण त्याग देंगे हालांकि इस बीच उनके बंधू बांधव और स्वयं भगवान श्री कृष्णा भी उनसे मिलने आते रहे। वो जानते थे की सूर्य के उत्तरायण होने पर प्राण त्यागने से सद्गति प्राप्त होती है और ऐसा करने से उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। वो ऐसा अपने पिता के द्वारा दिए गए इच्छा मृत्यु के वरदान के कारण ही कर पाए।
कहा जाता है कि जब तक वो शैय्या पर थे वो हमेशा सोचते रहते थे की आखिर क्यों उन्हें अपने जीवन के अंतिम समय पर बाणों की शैय्या मिली। आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया था जो उन्हें मृत्यु के समय ऐसे कष्ट को भोगना पड़ा। इस समय को वो अधिकतर प्रभु के ध्यान में ही बिताते थे। इसी बीच एक दिन भगवान श्री कृष्णा उनसे मिलने आये और कुछ बातें की,.ऐसे ही वार्तालाप करते हुए भीष्म पितामह ने श्री कृष्णा से पूछा कि हे मधुसूदन ! मुझे अपने अब तक के जीवन के पिछले सभी सौ जन्म याद हैं और अपने उन सौ जन्मो के कर्मो का भी स्मरण है। मुझे स्मरण है की मैंने उन सभी जन्मो ऐसा कोई भी पाप नहीं किया है फिर विधाता ने मुझे ही इस असहनीय पीड़ा को सहने के लिए क्यों चुना? उनके इस सवाल पर श्री कृष्ण बोले की ये हे पितामह ! आपको अपने अब तक के सिर्फ सौ जन्म ही याद हैं और अगर आप चाहते हैं तो मैं आपको उससे पहले के जन्मों के कर्म याद दिला सकता हूँ जिसकी वजह से आपको ये कष्ट भोगना पड रहा है।
ऐसा सुनकर भीष्म पितामह को अत्यंत ख़ुशी हुई मानो उनकी किसी विशेष समस्या का समाधान मिल गया हो। भीष्म पितामह ने व्याकुलता से श्री कृष्ण से कहा हे मधुसूदन ! कृपया करके इसके बारे में बताएं और इस समस्या का निवारण करें। उनकी व्यथा सुनकर श्री कृष्ण ने उन्हें बताया की अब तक से सौ वर्ष पहले के पीछे वर्ष अर्थात एक सौ एक वर्ष पहले भी आपने एक राजवंश में ही जन्म लिया था। उस समय आप एक राजकुमार थे और आपको आखेट पर जाना बहुत अच्छा लगता था। आप आखेट करने की मंशा से एक वन से दूसरे वन यात्रा किया करते थे। एक दिन आप ऐसे ही आखेट पर जा रहे थे और वन में विचरण कर रहे थे तभी एक कर्कटा पक्षी आपके रथ के सामने आ गया और बिना आपने बिना सोचे समझे बिना इधर उधर देखे उसको उठाकर किनारे कर दिया। आपने उसको रास्ते से हटा तो दिया लेकिन वो पक्षी कंटीली झाड़ियों में जा गिरा। उस झाडी के कांटो ने उस पक्षी को छलनी कर दिया, कांटे चुभने की वजह से उस पक्षी ने झाडी से बाहर निकलने की बहुत कोशिश की लेकिन वह पक्षी उन झाड़ियों से बाहर नहीं निकल पाया।
करीब 18 दिनों तक वह पक्षी उन झाड़ियों के बीच अपने जीवन और मृत्यु के लिए संघर्ष करता रहा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली और अंत में एक दिन उस पक्षी ने उस कष्ट को भोगते हुए वहीं अपने प्राण त्याग दिए.. वह पक्षी मृत्यु गति को प्राप्त हुआ लेकिन 18 दिनों तक अत्यंत दुःख में आपको श्राप देता रहा की जिस तरह मैं इन कंटीली झाड़िओ में अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहा हूँ और प्राण त्यागने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ठीक उसी तरह तुम भी अपने जीवन के लिए संघर्ष करोगे। फिर श्री कृष्ण ने कहा की हे पितामह ! यह उसी श्राप का परिणाम है जो आपके इस जन्म में आपको भोगना पड़ रहा है। इस पर पुनः पितामह ने फिर पूछा की हे प्रभु ! अगर मुझे मेरे इस श्राप का फल मिलना ही था तो इसी जन्म में क्यों मिला,मेरे पिछले सौ जन्मो में क्यों नहीं मिला ? इस पर फिर श्री कृष्ण ने कहा की हे पितामह ! अपने अपने पिछले सभी जन्मो में अनेक पुण्य किये, कभी कोई पाप कुछ नहीं किया इसी की वजह से आप हमेशा राजवंश में जन्म लेते रहे। आपके इन्ही पुण्य कर्मो की वजह से ये श्राप कभी आपको छू भी नहीं पाया और आपके पुण्य कर्मो ने इस पाप को दबा दिया, लेकिन इस जन्म में आपके पुण्य कर्मो का क्षय तब होना शुरू हो गया जब आपने उस पापी और कपटी दुर्योधन के गलत होने पर भी उसका साथ दिया।
दुर्योधन के छल करने पर भी उसका विरोध नहीं किया। इसके पश्चात अपनी पुत्री समान कुलवधू का चीरहरण किये जाने पर भी आपने दुर्योधन तथा दु:शाशन का विरोध नहीं किया। आप चाहते तो ये सब रोक सकते थे लेकिन आप नज़रें नीचे झुका कर बस सब कुछ होते हुए देखते रहे| महाभारत के युद्ध में अभिमन्यु के साथ छल किया गया और आप वहाँ पर भी चुप रहे| इन सभी कारणों की वजह से आपके पाप बढ़ते गए और पुण्य कर्मो का क्षय होता गया जिसकी वजह से इस जन्म में वो श्राप भी सिद्ध हुआ और आपको आज ये बाणों की शैय्या मिली। इसी वजह से आपको ये असहनीय पीड़ा भोगनी पड रही है। इस प्रकार कर्मो की महत्ता बताते हुए श्री कृष्ण ने उन्हें उनके सभी प्रश्नो का उत्तर दिया और उन्हें बताया की क्यों उन्हें इस जन्म में यह कष्ट मिला| अपने प्रश्नो के उत्तर पाकर भीष्म पितामह की जिज्ञासा शांत हुई।
फिर एक दिन माघ मास का शुक्ल पक्ष आ ही गया और सूर्य उत्तरायण हो गया। इसी दिन भीष्म पितामह ने अपनी देह त्याग दी और सदा के लिए अमर हो गए।
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