वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की तिथि को आने वाली एकादशी को वरुथिनी एकादशी कहते हैं। वरूथिनी शब्द संस्कृत भाषा के ‘वरूथिन्’ से बना है, जिसका मतलब है- प्रतिरक्षक, कवच या रक्षा करने वाला। इस व्रत को करने से बहुत सौभाग्य और पुण्य मिलता है। सूर्य ग्रहण के समय दान करने से जो फल प्राप्त होता है, वही फल इस व्रत को करने से प्राप्त होता है।
इस व्रत को करने से मनुष्य लोक और परलोक दोनों में सुख पाता है और अंत समय में स्वर्ग जाता है। इस व्रत को करने से व्यक्ति को हाथी के दान और भूमि के दान करने से अधिक शुभ फलों की प्राप्ति होती है। इस व्रत को रखने वाले की भगवान विष्णु हर संकट से रक्षा करते हैं।वरूथिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के इस विशेष मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए।
ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि।
ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।।
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वरुथिनी एकादशी पूजा विधि
- वरुथिनी एकादशी के दिन सुबह प्रात: जल्दी उठ कर स्नान करें।
- इसके बाद भगवान का ध्यान करते हुए सबसे पहले व्रत का संकल्प करें।
- स्नान करने के बाद घर के मंदिर में दीपक जलाएं।
- भगवान विष्णु की प्रतिमा को स्नान करवाएं और उन्हें साफ धुले हुए वस्त्र पहनाएं।
- मूर्ति स्थापित करने के बाद भगवान विष्णु को पीले रंगे फूल, पीली मिठाई, तुलसी दल, पीले फूल,पीले वस्त्र और नैवेद्य आदि अर्पित करें।
- भगवान विष्णु की विधि- विधान से पूजा और आरती करें।
- वरुथिनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को भोग अवश्य लगवाएं।
- भगवान से किसी प्रकार हुआ गलती के लिए क्षमा भी मांगे।
- अगले दिन सुबह ब्राह्मणों को ससम्मान आमंत्रित करके भोजन कराएं और अपने अनुसार उन्हे भेंट और दक्षिणा दे।
- सभी को प्रसाद देने के बाद खुद भोजन करें।
वरुथिनी एकादशी व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा राज्य करते थे। वह अत्यंत दानशील, पुण्य आत्मा तथा तपस्वी थे। वह अपनी दान शीलता के लिए वह दूर दूर तक प्रसिद्ध थे। एक दिन जब वह जंगल में तपस्या कर रहे थे, तभी न जाने कहाँ से एक जंगली भालू आया और राजा का पैर चबाने लगा। राजा पूर्ववत अपनी तपस्या में लीन रहे। कुछ देर बाद पैर चबाते-चबाते भालू राजा को घसीटकर पास के जंगल में ले गया।
राजा बहुत घबराया, मगर तापस धर्म अनुकूल उसने क्रोध और हिंसा न करके भगवान विष्णु से प्रार्थना की, करुण भाव से भगवान विष्णु को पुकारा। उसकी पुकार सुनकर भगवान श्रीहरि विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने चक्र से भालू को मार गिराया। लेकिन राजा का पैर भालू पहले ही खा चुका था। इससे राजा बहुत ही दुखी और दर्द में थे; उसे दुखी देखकर भगवान विष्णु बोले: हे वत्स! शोक मत करो। तुम मथुरा जाओ और वरूथिनी एकादशी का व्रत रखकर मेरी वराह अवतार मूर्ति की पूजा करो। उसके प्रभाव से पुन: सुदृढ़ अंगों वाले हो जाओगे। इस भालू ने तुम्हें जो काटा है, यह तुम्हारे पूर्व जन्म का अपराध था।
भगवान की आज्ञा मानकर राजा मान्धाता ने मथुरा जाकर श्रद्धापूर्वक वरूथिनी एकादशी का व्रत किया। इसके प्रभाव से राजा शीघ्र ही पुन: सुंदर और संपूर्ण अंगों वाला हो गया। इसी एकादशी के प्रभाव से राजा मान्धाता स्वर्ग गये थे। इस प्रकार यह व्रत अत्यंत प्रभावशाली है।
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