चाणक्य नीति: सत्रहवां अध्याय | Chanakya Niti in Hindi: Seventeenth Chapter

चाणक्य नीति: सत्रहवां अध्याय | Chanakya Niti in Hindi: Seventeenth Chapter

  1. वह विद्वान जिसने असंख्य किताबों का अध्ययन बिना सद्गुरु के आशीर्वाद से कर लिया वह विद्वानों की सभा में एक सच्चे विद्वान के रूप में नहीं चमकता है. उसी प्रकार जिस प्रकार एक नाजायज औलाद को दुनिया में कोई प्रतिष्ठा हासिल नहीं होती.

The scholar who has acquired knowledge by studying innumerable books without the blessings of a bonafide spiritual master does not shine in an assembly of truly learned men just as an illegitimate child is not honoured in society.

पुस्तकं प्रत्याधीतं नाधीतं गुरुसन्निधौ।
सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रियः।।1।।

  1. हमें दूसरों से जो मदद प्राप्त हुई है उसे हमें लौटना चाहिए. उसी प्रकार यदि किसी ने हमसे यदि दुष्टता की है तो हमें भी उससे दुष्टता करनी चाहिए. ऐसा करने में कोई पाप नहीं है.

We should repay the favours of others by acts of kindness; so also should we return evil for evil in which there is no sin, for it is necessary to pay a wicked man in his own coin.

कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम्।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत।।2।।

  1. वह चीज जो दूर दिखाई देती है, जो असंभव दिखाई देती है, जो हमारी पहुँच से बहार दिखाई देती है, वह भी आसानी से हासिल हो सकती है यदि हम तप करते है. क्यों की तप से ऊपर कुछ नहीं.

That thing which is distant, that thing which appears impossible, and that which is far beyond our reach, can be easily attained through tapasya (religious austerity), for nothing can surpass austerity.

यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम्।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम्।।3।।

  1. लोभ से बड़ा दुर्गुण क्या हो सकता है. पर निंदा से बड़ा पाप क्या है. जो सत्य में प्रस्थापित है उसे तप करने की क्या जरूरत है. जिसका ह्रदय शुद्ध है उसे तीर्थ यात्रा की क्या जरूरत है. यदि स्वभाव अच्छा है तो और किस गुण की जरूरत है. यदि कीर्ति है तो अलंकार की क्या जरूरत है. यदि व्यवहार ज्ञान है तो दौलत की क्या जरूरत है. और यदि अपमान हुआ है तो मृत्यु से भयंकर नहीं है क्या.

What vice could be worse than covetousness? What is more sinful than slander? For one who is truthful, what need is there for austerity? For one who has a clean heart, what is the need for pilgrimage? If one has a good disposition, what other virtue is needed? If a man has fame, what is the value of other ornamentation? What need is there for wealth for the man of practical knowledge? And if a man is dishonoured, what could there be worse than death?

लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पताकैः
सत्यं यत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः।
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।4।।

  1. समुद्र ही सभी रत्नों का भण्डार है. वह शंख का पिता है. देवी लक्ष्मी शंख की बहन है. लेकिन दर-दर पर भीख मांगने वाले हाथ में शंख ले कर घूमते है. इससे यह बात सिद्ध होती है की उसी को मिलेगा जिसने पहले दिया है.

Though the sea, which is the reservoir of all jewels, is the father of the conch shell, and the Goddess of fortune Lakshmi is conch’s sister, still the conch must go from door to door for alms (in the hands of a beggar). It is true, therefore, that one gains nothing without having given in the past.

पिता रत्नाकरो यस्य लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी।
शंखो भिक्षाटनं कुर्यान्न दत्तमुपतिष्ठति।।5।।

  1. जब आदमी में शक्ति नहीं रह जाती वह साधु हो जाता है. जिसके पास दौलत नहीं होती वह ब्रह्मचारी बन जाता है. रुग्ण भगवान का भक्त हो जाता है. जब औरत बूढी होती है तो पति के प्रति समर्पित हो जाती है.

When a man has no strength left in him he becomes a sadhu, one without wealth acts like a brahmachari, a sick man behaves like a devotee of the Lord, and when a woman grows old she becomes devoted to her husband.

अशवतस्तुभवेत्साधुर्ब्रह्मचारी च निर्धनः।
व्याधिष्ठो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता।।6।।

7. अन्न और जल के दान के समान कोई दान नहीं है। द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है। गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है। मां से बढ़कर कोई देवता नहीं है।

नान्नोदकसमं दानं न तिथिदशी समा।
न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुर्दैवतं परम्।।7।।

  1. साँप के दंश में विष होता है. कीड़े के मुँह में विष होता है. बिच्छू के डंक में विष होता है. लेकिन दुष्ट व्यक्ति तो पूर्ण रूप से विष से भरा होता है.

There is poison in the fang of the serpent, in the mouth of the fly and in the sting of a scorpion; but the wicked man is saturated with it.

तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकाया मुखे विषम्।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांगे दुर्जने विषम्।।8।।

  1. जो स्त्री अपने पति की सम्मति के बिना व्रत रखती है और उपवास करती है, वह उसकी आयु घटाती है और खुद नरक में जाती है.

The woman who fasts and observes religious vows without the permission of her husband shortens his life, and goes to hell.

पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।
आयुष्य हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत्।।9।।

  1. स्त्री दान दे कर, उपवास रख कर और पवित्र जल का पान करके पावन नहीं हो सकती. वह पति के चरणों को धोने से और ऐसे जल का पान करने से शुद्ध होती है.

A woman does not become holy by offering charity, by observing hundreds of fasts, or by sipping sacred water, as by sipping the water used to wash her husband’s feet.

न दानैः शुद्ध्यते नारी नोपवासशतैरपि।
न तीर्थसेवया तद्वद् भतुः पदोदकैर्यथा।।10।।

11.

आचार्य चाणक्य यहां सच्ची सुंदरता की चर्चा करते हुए हाथों की सुन्दरता दान से है न की हीरे जवाहरात जड़े गहने पहनने से, शरीर नहाने से स्वच्छ होता है, न की चन्दन तेल लगाने से| सज्जन सम्मान से संतुष्ट होता है, खाने पिने से नहीं, सजने सवारने से मोक्ष नहीं मिलता है, आत्मा का ज्ञान होने पर ही मोक्ष मिलता है|

दानेन पाणिर्न तु कंकणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मंडनेन।।11।।

  1. एक हाथ की शोभा गहनों से नहीं दान देने से है. चन्दन का लेप लगाने से नहीं जल से नहाने से निर्मलता आती है. एक व्यक्ति भोजन खिलाने से नहीं सम्मान देने से संतुष्ट होता है. मुक्ति खुद को सजाने से नहीं होती, अध्यात्मिक ज्ञान को जगाने से होती है.

The hand is not so well adorned by ornaments as by charitable offerings; one does not become clean by smearing sandalwood paste upon the body as by taking a bath; one does not become so much satisfied by dinner as by having respect shown to him; and salvation is not attained by self-adornment as by cultivation of spiritual knowledge.

नापितस्य गृहे क्षौरं पाषाणे गन्धलेपनम्।
आत्मरूपं जले पश्यन् शक्रस्यापि श्रियं हरेत्।।12।।

13. टुंडी फल खाने से आदमी की समझ खो जाती है. वच मूल खिलाने से लौट आती है. औरत के कारण आदमी की शक्ति खो जाती है, दूध से वापस आती है.

The eating of tundi fruit deprives a man of his sense, while the vacha root administered revives his reasoning immediately. A woman at once robs a man of his vigour while milk at once restores it.

सद्यः प्रज्ञाहरा तुण्डी सद्यः प्रज्ञाकरी वचा।
सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः।।13।।

  1. जिस घर में सुशील, सुन्दर और शुभ लक्षणों वाली पत्नी हो, धन की कमी न हो, पुत्र माता-पिता का आज्ञाकारी हो और पुत्र का भी पुत्र; अर्थात पोता भी हो गया हो, ऐसा घर पृथ्वी में ही स्वर्ग के समान है। स्वर्ग के सुख भी इससे अधिक नहीं होते।

यदि रामा यदि चरमा यदि तनयो विनयगुणोपेतः।
तनयो तनयोत्पत्तिः सुखररनगरे किमाधिक्यम्।।14।।

  1. जिसमे सभी जीव के प्रति परोपकार की भावना है वह सभी संकटों पर मात करता है और उसे हर कदम पर सभी प्रकार की सम्पन्नता प्राप्त होती है.

He who nurtures benevolence for all creatures within his heart overcomes all difficulties and will be the recipient of all types of riches at every step.

  1. वह इंद्र के राज्य में जाकर क्या सुख भोगेगा….

जिसकी पत्नी प्रेम भाव रखने वाली और सदाचारी है.

जिसके पास में संपत्ति है.

जिसका पुत्र सदाचारी और अच्छे गुण वाला है.

जिस को अपने पुत्र द्वारा पौत्र हुए है.

What is there to be enjoyed in the world of Lord Indra for one whose wife is loving and virtuous, who possesses wealth, who has a well-behaved son endowed with good qualities, and who has grandchildren born of his children?

  1. मनुष्यों में और निम्न स्तर के प्राणियों में खाना, सोना, घबराना और गमन करना समान है. मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ है तो विवेक ज्ञान की बदौलत. इसलिए जिन मनुष्यों में ज्ञान नहीं है वे पशु है.

Men have eating, sleeping, fearing and mating in common with the lower animals. That in which men excel the beasts is discretionary knowledge; hence, indiscreet men who are without knowledge should be regarded as beasts.

दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालै दूरीकृता करिवरेण मदान्धबुद्ध्या।
तस्यैव गंडयुगमंडनहानिरेव शृंगाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति।।16।।

  1. यदि मद मस्त हाथी अपने माथे से टपकने वाले रस को पीने वाले भोरों को कान हिला कर उड़ा देता है, तो भोरों का कुछ नहीं जाता, वे कमल से भरे हुए तालाब की ओर ख़ुशी से चले जाते है. हाथी के माथे का शृंगार कम हो जाता है.

If the bees that seek the liquid oozing from the head of a lust-intoxicated elephant are driven away by the flapping of his ears, then the elephant has lost only the ornament of his head. The bees are quite happy in the lotus filled lake.

  1. ये आठों कभी दूसरों का दुःख नहीं समझ सकते …

१. राजा २. वेश्या ३. यमराज ४. अग्नि ५. चोर ६. छोटा बच्चा ७. भिखारी और ८. कर वसूल करने वाला.

A king, a prostitute, Lord Yamaraja, fire, a thief, a young boy, and a beggar cannot understand the suffering of others. The eighth of this category is the tax collector.

राजा वेश्या यमश्चाग्निः चौराः बालक याचकाः।
परदुःखं न जानन्ति अष्टमो ग्रामकण्टकाः।।19।।

  1. हे महिला, तुम नीचे झुककर क्या देख रही हो? क्या तुम्हारा कुछ जमीन पर गिर गया है?

हे मूर्ख, मेरे तारुण्य का मोती न जाने कहा फिसल गया.

O lady, why are you gazing downward? Has something of yours fallen on the ground? (She replies) O fool, can you not understand the pearl of my youth has slipped away?

अधः पश्यसि किं बाले पतितं तव किं भुवि।
रे रे मूर्ख न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम्।।20।।

  1. हे केतकी पुष्प! तुममे तो कीड़े रहते है. तुमसे ऐसा कोई फल भी नहीं बनता जो खाया जाये. तुम्हारे पत्ते काटो से ढके है. तुम टेड़े होकर बढ़ते हो. कीचड़ में खिलते हो. कोई तुम्हें आसानी से पा नहीं सकता. लेकिन तुम्हारी अतुलनीय खुशबू के कारण दूसरे पुष्पों की तरह सभी को प्रिय हो. इसीलिए एक ही अच्छाई अनेक बुराइयों पर भारी पड़ती है.

O ketki flower! Serpents live in your midst, you bear no edible fruits, your leaves are covered with thorns, you are crooked in growth, you thrive in mud, and you are not easily accessible. Still for your exceptional fragrance you are as dear as kinsmen to others. Hence, a single excellence overcomes a multitude of blemishes.

व्यालाश्रयापि विफलापि सकण्टकापि
वक्रापि पंकसहितापि दुरासदापि। |
गन्धेन बन्धुरसि केतकि सर्वजन्तो –
रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्।।21।।

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