फाल्गुन शुक्ल पक्ष में पुष्य नक्षत्र में आने वाली एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस एकादशी में आंवले के पेड़ के नीचे भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस व्रत को करने से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कहा जाता है कि इस दिन व्रत रखने से एक हजार गौदान के फल के बराबर पुण्य की प्राप्ति होती है। काशी में इस दिन हर तरफ रंग और गुलाल के साथ अथाह प्रेम बरसता है। इसलिए इसे रंगभरनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं।
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आमलकी एकादशी पूजा विधि
- आमलकी एकादशी से एक दिन पहले दशमी को रात के समय भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए।
- सुबह जल्दी उठकर स्नान कर लें।
- इसके बाद घर के मंदिर में विष्णु जी की प्रतिमा के सामने हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर व्रत करने का संकल्प लें।
- अब विधि विधान के साथ श्री हरि की पूजा करने के लिए विष्णु जी की प्रतिमा को स्नान कराएं।
- फिर उसे साफ कपड़े से पोंछकर वस्त्र पहनाएं।
- फिर विष्णु जी को फूल, तुलसी दल और कुछ फल चढ़ाएं।
- फिर आमलकी एकादशी की कथा पढ़ें और अंत में विष्णु जी की आरती उतारकर भोग लगाएं।
- पूजा करने के बाद पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें।
- शाम के समय एक बार विष्णुु जी की पूजा करें और फलाहार ग्रहण करें।
- अगले दिन यानी कि द्वादशी को सुबह ब्राह्मण को भोजन कराएं और उन्हें यथा शक्ति दान-दक्षिणा देकर विदा करें।
- इसके बाद आप स्वयं भी भोजन ग्रहण कर व्रत का पारण करें।
आमलकी एकादशी व्रत कथा
एक बार वैदिश नाम का नगर था, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण आनंद सहित रहते थे। उस नगर में सदैव वेद ध्वनि गूंजा करती थी तथा पापी, दुराचारी तथा नास्तिक उस नगर में कोई नहीं था। उस नगर में चैतरथ नाम का चन्द्रवंशी राजा राज्य करता था। वह अत्यंत विद्वान तथा धर्मी था। उस नगर में कोई भी व्यक्ति दरिद्र व कंजूस नहीं था। सभी नगरवासी विष्णु भक्त थे और आबाल-वृद्ध स्त्री-पुरुष एकादशी का व्रत किया करते थे।
एक बार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी आई। उस दिन राजा, प्रजा तथा बाल-वृद्ध सबने हर्षपूर्वक व्रत किया। राजा अपनी प्रजा के साथ मंदिर में जाकर पूर्ण कुंभ स्थापित करके धूप, दीप, नैवेद्य, पंचरत्न आदि से आंवले का पूजन करने लगे और इस प्रकार स्तुति करने लगे। इसके बाद सबने उस मंदिर में रात्रि जागरण किया।
रात के समय वहां एक बहेलिया आया, जो अत्यंत पापी और दुराचारी था। वह अपने कुटुम्ब का पालन जीव-हत्या करके किया करता था। भूख और प्यास से अत्यंत व्याकुल वह बहेलिया इस जागरण को देखने के लिए मंदिर के एक कोने में बैठ गया और विष्णु भगवान तथा एकादशी माहात्म्य की कथा सुनने लगा। इस प्रकार अन्य मनुष्यों की भांति उसने भी सारी रात जागकर बिता दी।
प्रात:काल होते ही सब लोग अपने घर चले गए तो बहेलिया भी अपने घर चला गया। घर जाकर उसने भोजन किया। कुछ समय बीतने के पश्चात उस बहेलिए की मृत्यु हो गई। मगर उस आमलकी एकादशी के व्रत तथा जागरण से उसने राजा विदूरथ के घर जन्म लिया और उसका नाम वसुरथ रखा गया। युवा होने पर वह चतुरंगिनी सेना सहित तथा धन-धान्य से युक्त होकर 10 हजार ग्रामों का पालन करने लगा। वह अत्यंत धार्मिक, सत्यवादी, कर्मवीर और विष्णु भक्त था। वह प्रजा का समान भाव से पालन करता था। दान देना उसका नित्य कर्तव्य था।
एक दिन राजा शिकार खेलने के लिए गया। दैवयोग से वह मार्ग भूल गया और दिशा ज्ञान न रहने के कारण उसी वन में एक वृक्ष के नीचे सो गया। थोड़ी देर बाद वहां कुछ लोग आ गए और राजा को अकेला देखकर ‘मारो, मारो…’ शब्द करते हुए राजा की ओर दौड़े। वे कहने लगे कि इसी दुष्ट राजा ने हमारे माता, पिता, पुत्र, पौत्र आदि अनेक संबंधियों को मारा है तथा देश से निकाल दिया है अत: इसको अवश्य मारना चाहिए।
ऐसा कहकर वे उस राजा को मारने दौड़े और अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र उसके ऊपर फेंके। वे सब अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरते ही नष्ट हो जाते और उनका वार पुष्प के समान प्रतीत होता। अब उन लोगों के अस्त्र-शस्त्र उलटा उन्हीं पर प्रहार करने लगे जिससे वे मूर्छित होकर गिरने लगे। उसी समय राजा के शरीर से एक दिव्य स्त्री उत्पन्न हुई। वह स्त्री अत्यंत सुंदर होते हुए भी उसकी भृकुटी टेढ़ी थी, उसकी आंखों से लाल-लाल अग्नि निकल रही थी जिससे वह दूसरे काल के समान प्रतीत होती थी।
वह स्त्री उन लोगों को मारने दौड़ी और थोड़ी ही देर में उसने सबको काल का ग्रास बना दिया। जब राजा सोकर उठा तो उसने उन लोगों को मरा हुआ देखकर कहा कि इन शत्रुओं को किसने मारा है? इस वन में मेरा कौन हितैषी रहता है? वह ऐसा विचार कर ही रहा था कि आकाशवाणी हुई, ”हे राजा! इस संसार में विष्णु भगवान के अतिरिक्त कौन तेरी सहायता कर सकता है।” इस आकाशवाणी को सुनकर राजा अपने राज्य में आ गया और सुखपूर्वक राज करने लगा।
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