तेनालीराम ने सुना था कि राजा कृष्णदेव राय बुद्धिमानों व गुणवानों का बड़ा आदर करते हैं। उसने सोचा, क्यों न उनके यहाँ जाकर भाग्य आजमाया जाए। लेकिन बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना टेढ़ी खीर थी। वह किसी ऐसे अवसर की ताक में रहने लगा। जब उसकी भेंट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।
इसी बीच तेनालीराम का विवाह दूर के नाते की एक लड़की मगम्मा से हो गया। एक वर्ष बाद उसके घर बेटा हुआ। इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय का राजगुरु मंगलगिरि नामक स्थान गया। वहाँ जाकर रामलिंग ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।
राजगुरु बहुत चालाक था। उसने रामलिंग से खूब सेवा करवाई और लंबे-चौड़े वायदे करता रहा। रामलिंग अर्थात तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और राजगुरु को प्रसन्न रखने के लिए दिन-रात एक कर दिया। राजगुरु ऊपर से तो चिकनी-चुपड़ी बातें करता रहा, लेकिन मन-ही-मन तेनालीराम से जलने लगा।
उसने सोचा कि इतना बुद्धिमान और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी कीमत गिर जाएगी। पर जाते समय उसने वायदा किया-‘जब भी मुझे लगा कि अवसर उचित है, मैं राजा से तुम्हारा परिचय करवाने के लिए बुलवा लूँगा।’ तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया।
लोग उससे हँसकर पूछते, ‘क्यों भाई रामलिंग, जाने के लिए सामान बाँध लिया ना?’ कोई कहता, ‘मैंने सुना है कि तुम्हें विजयनगर जाने के लिए राजा ने विशेष दूत भेजा है।’ तेनालीराम उत्तर देता-‘समय आने पर सब कुछ होगा।’ लेकिन मन-ही-मन उसका विश्वास राजगुरु से उठ गया।
तेनालीराम ने बहुत दिन तक इस आशा में प्रतीक्षा की कि राजगुरु उसे विजयनगर बुलवा लेगा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं ही विजयनगर जाएगा। उसने अपना घर और घर का सारा सामान बेचकर यात्रा का खर्च जुटाया और माँ, पत्नी तथा बच्चे को लेकर विजयनगर के लिए रवाना हो गया।
यात्रा में जहाँ कोई रुकावट आती, तेनालीराम राजगुरु का नाम ले देता, कहा, ‘मैं उनका शिष्य हूँ।’ उसने माँ से कहा, ‘देखा? जहाँ राजगुरु का नाम लिया, मुश्किल हल हो गई। व्यक्ति स्वयं चाहे जैसा भी हो, उसका नाम ऊँचा हो तो सारी बाधाएँ अपने आप दूर होने लगती हैं। मुझे भी अपना नाम बदलना ही पड़ेगा।
राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे भी अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग की जगह रामकृष्ण हुआ।’
‘बेटा, मेरे लिए तो दोनों नाम बराबर हैं। मैं तो अब भी तुझे राम पुकारती हूँ, आगे भी यही पुकारूँगी।’ माँ बोली।
कोडवीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहाँ के राज्य प्रमुख से हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। उसने बताया कि महाराज बहुत गुणवान, विद्वान और उदार हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी जब क्रोध आता है तो देखते ही देखते सिर धड़ से अलग कर दिए जाते हैं। ‘जब तक मनुष्य खतरा मोल न ले, वह सफल नहीं हो सकता। मैं अपना सिर बचा सकता हूँ।
तेनालीराम के स्वर में आत्मविश्वास था। राज्य प्रमुख ने उसे यह भी बताया कि प्रधानमंत्री भी गुणी व्यक्ति का आदर करते हैं, पर ऐसे लोगों के लिए उनके यहाँ स्थान नहीं है, जो अपनी सहायता आप नहीं कर सकते। चार महीने की लंबी यात्रा के बाद तेनालीराम अपने परिवार के साथ विजयनगर पहुँचा। वहाँ की चमक-दमक देखकर तो वह दंग ही रह गया।
चौड़ी-चौड़ी सड़कें, भीड़भीड़, हाथी-घोड़े, सजी हुई दुकानें और शानदार इमारतें- यह सब उसके लिए नई चीजें थी।’ उसने कुछ दिन ठहरने के लिए वहाँ एक परिवार से प्रार्थना की। वहाँ अपनी माँ, पत्नी और बच्चे को छोड़कर वह राजगुरु के यहाँ पहुँचा। वहाँ तो भीड़ का ठिकाना ही नहीं था।
राजमहल के बड़े-से-बड़े कर्मचारी से लेकर रसोइया तक वहाँ जमा थे। नौकर-चाकर भी कुछ कम न थे। तेनालीराम ने एक नौकर को संदेश देकर भेजा कि उनसे कहो तेनाली गाँव से राम आया है। नौकर ने वापस आकर कहा, ‘राजगुरु ने कहा है कि वह इस नाम के किसी व्यक्ति को नहीं जानते।’
तेनालीराम बहुत हैरान हुआ। वह नौकरों को पीछे हटाता हुआ सीधे राजगुरु के पास पहुँचा, ‘राजगुरु आपने मुझे पहचाना नहीं? मैं रामलिंग हूँ, जिसने मंगलगिरि में आपकी सेवा की थी।’ राजगुरु भला उसे कब पहचानना चाहता था। उसने नौकरों से चिल्लाकर कहा, ‘मैं नहीं जानता, यह कौन आदमी है, इसे धक्के देकर बाहर निकाल दो।’
नौकरों ने तेनालीराम को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। चारों ओर खड़े लोग यह दृश्य देखकर ठहाके लगा रहे थे। उसका कभी ऐसा अपमान नहीं हुआ था। उसने मन-ही-मन फैसला किया कि राजगुरु से वह अपने अपमान का बदला अवश्य लेगा। लेकिन इससे पहले राजा का दिल जीतना जरूरी था।
दूसरे दिन वह राजदरबार में जा पहुँचा। उसने देखा कि वहाँ जोरों का वाद-विवाद हो रहा है। संसार क्या है? जीवन क्या है? ऐसी बड़ी-बड़ी बातों पर बहस हो रही थी। एक पंडित ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, ‘यह संसार एक धोखा है। हम जो देखते-सुनते हैं, महसूस करते हैं, चखते या सूँघते हैं, केवल हमारे विचार में है। असल में यह सब कुछ नहीं होता, लेकिन हम सोचते हैं कि होता है।’
‘क्या सचमुच ऐसा है?’तेनालीराम ने कहा। ‘यही बात हमारे शास्त्रों में भी कही गई है।’ पंडितजी ने थोड़ी ऐंठ दिखाते हुए हैरान होकर पूछा। और सब लोग चुप बैठे। शास्त्रों ने जो कहा, वह झूठ कैसे हो सकता है।
लेकिन तेनालीराम शास्त्रों से अधिक अपनी बुद्धि पर विश्वास करता था। उसने वहाँ बैठे सभी लोगों से कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो हम क्यों न पंडितजी के इस विचार की सच्चाई जाँच लें। हमारे उदार महाराज की ओर से आज दावत दी जा रही है, उसे हम जी भरकर खाएँगे। पंडितजी से प्रार्थना है कि वह बैठे रहें और सोचें कि वह भी खा रहे हैं।’
तेनालीराम की बात पर जोर का ठहाका लगा। पंडितजी की सूरत देखते ही बनती थी कि महाराज तेनालीराम पर इतने प्रसन्न हुए कि उसे स्वर्णमुद्राओं की एक थाली भेंट की और उसी समय तेनालीराम को राज विदूषक बना दिया। सब लोगों ने तालियाँ बजाकर महाराज की इस घोषणा का स्वागत किया, उनमें राजगुरु भी था।
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